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P॥५८०॥
मोक्षाभिलापी बनी पोतानी मेळज संधाय (ते संथि) अथवा जे कर्मसंतति बन्धाय अने एक भवथी बीजा भवमा साथे जाय ते आचा०
आठ प्रकारना कर्मसंततिरूप छे. तेने क्षय करी में (तीर्थकरोए) धर्म कयो. तेज मोक्ष माग छे, पण बीजो नहीं. ते कहे छे जेम में
अहीं कर्मसमूह (संधि) तोड्यो. तेम अन्यत्र वीजा अन्य तीर्थी के कहेला मोक्षमार्गमा कर्मसंततिरूप संधि दुःक्षय ते दुःखे करीने ॥५८०॥ क्षय याय तेम छे, कारण के ते असमीचीनपणे होवाथी तेमां खरा उपायनो अभाव छे.
जो जिनेश्वरे अहीं कर्म संधि तोड्यो छे, तो शुं समजवु ते कहे छे, जेम आज मार्गमां रहीने उत्कृष्ट तपश्चर्यावडे में कर्म खपाव्यु, तेज प्रमाणे अन्य मुमुक्षु पण संयम अनुष्ठानमां तथा तपमा पोतानी शक्तिने योजे, पण प्रमाद न करे, सुधर्माखामीए पोताना ४/ शिष्यने कां, के आ प्रमाणे परम कारुण्यथी भीजायेला हृदयवाळा अने परहितनो एक उपदेश देनारा श्रीवीरवर्धमानस्वामीए 15 अमने का छे. प्रश्न क्यो माणस एवी क्रिया करनारो थाय ? ने कहे छे.
जे पुव्वुहाई नो पच्छा निवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छा निवाई, जे नो पुव्वुट्टायोनो पच्छा निवाई ___सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्ने सयंति ॥ सू० १५२ ॥
जे कोइए संसारनो (अस्थिर) स्वभाव जाणवावडे धर्म चरणमां एक तत्पर मनवाळो वनीने प्रथमथी दीक्षाना अवसरे संयम अनुष्ठान करवाने तैयार थएलो होय ते 'पूर्वोत्थायी छे, अने पछीथी श्रद्धा तथा संवेगथी विशेषथी वधता परिणामवाळो होय, तो ते चारित्रथी भ्रष्ट थतो नथी, (पडवाना स्वभाववालो ते निपाती छे, एदले चारित्र लेइने निपात करे ते निपाती छे, आवो निपाती
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