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॥९३५॥
वा साइम्पिया तत्थ वसंत्ति संभोइया समणुना अपरिहारिया अदरगया, तेसिं अणुप्पयायध्वं सिया, नो जत्य साहम्मिया जहेव बहुपरियावन कीरइ तहेव कायव्वं सिया, एवं खलु० ॥ (०५९)॥२-११-१-१०॥ पिण्डेपणायां
सूत्रम् दशम उद्दशकः ॥ .. ते भिक्षु घर विगेरेमां गोचरी जतां कदाच गृहस्थ पासे मांदा विगेरे माटे खांड विगेरे मांगतां विड लवण खाणमां उत्पन्न
॥९३५॥ थएल मीठं तथा उद्भिज ते समुद्रन मीटुं भूलथी आपे, ते वखते साधुएं तेना हाथमां के वासणमाथी तपासीने लेबु के भूलथी। खांडने बदले मीठं न आवे, पण कदाच बनेने उतावळ होवाथी साधुना पात्रमा आवी गयु होय अने थोडे दूर गया पछी साधुने
खबर पडे तो पाछो आवीने ते गृहस्थने कहे के, आ तमे खांडने बदले मीठं आपेल छे ते जाणमां के अजाणमां ? जो अजाणमां 8 आप्यान कहे अने पछी एम कहे के तमने जो खप होय तो वापरजो, आ प्रमाणे गृहस्थ जो रजा आपे तो मासुक होय तो साधुए | बहेंचीने खावू, कदाच अप्रामुक आवे अने गृहस्थ पार्छ न ले तो परठववानो महान दोष जाणीने पोते खाय पीये, वधारे होय नो नजीक रहेला उत्तम साधुओने वडेंची आपे, तेवा साधर्मिक न होय तो पोतानी शक्ति प्रमाणे वापरे, (बाकीनु परठवी दे.) आ साधुनुं सर्वथा साधुपणुं छे. ( एटला माटे बने त्यां लगी गोचरी जनारे गोचरीमांज पुरतुं लक्ष्य राखीने वस्तु लेवी के पछवाडे 8 | आवी तकलीफ न परे.).
दसमो उद्देशो समाप्त.
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