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आचा०
१६४७॥
| तानी गरदनने बहार काढी; ते समये त्यां तेणे शरदऋतुना चंद्रनां चांदरणाथी क्षीरसागरना पाणीना प्रवाहथी छवाइ रहेलुं शोभायमान बनेलं तथा, खीलेलां कुमुदना समूहथी पूजा करवा जेवा उगेला ताराओथी भराइ गयेलुं आकाश जोयुं.
आधुं देखीने ते घणो खुश थयो; अने तेना मनमां आ प्रमाणे संकल्प थयो के—मारा सहचारी मित्रो आ स्वर्गसमान पूर्वे न देखेलुं मनोरथ ( विचारमा) पण, न कळी शकाय तेनुं ते काचवाओ जुए, तो बहु सारुं थाय. आ प्रमाणे विचारी शीघ्रताथी | पोताना बन्धुओने शोधवा माटे भटक्यो; अने तेमने मळीने तेमने तेतुं बतावचा माटे पैलुं छिद्र शोधतो आम तेम भटके छे, छतां, | दोजनी विस्तीर्णताथी, तथा जीवोनो समूह त्यां घणो मोटो छे, तेथी ते छिद्र मेळवी शक्यो नहि; पण, त्यांज ते, (विनादेखे) मरण पाम्यो. तेनो सार आ लेवानो छे के—संसाररूपी- होज छे. तेमां जीवरूपी - काचवो छे, कर्मरुपी -चीकणी सेवाळ छे, तेमां छिद्र समान-मनुष्यजन्म, तथा आर्थक्षेत्र सुकुळमां जन्म मळवो; अने सम्यक्त्वनी प्राप्तिरूप-सुंदर चन्द्रवाळं आकाशतळ मेळवीने मोहना उदयथी पोतानी ज्ञाति माटे, अथवा विषयस्वादना उपभोग माटे सारां संयममां अनुष्ठान न करतां सफळता (मोक्षने) पामतो नथी; अने तेवीरीते वखन गुमावी; ते सामग्री गुमावी देवाथी पाछो काचवाना विवर माफक क्यांथी तेवी उत्तम सामग्री मेळवी शके ?
आ कारणथी गुरु उपदेश आपे छे के, हे भव्य ! सेंकडो भवोमां पण, दुष्प्राप्य एंवं कर्मविवररुप - सम्यक्त्व पामीने एकक्षण | मात्र पण, तमारे प्रमादवाळा न थ. फरीथी पण, संसारलुब्ध- जीवोनुं बीजुं दृष्टांत कहे छे:
'भंजगा' - वृक्षो पोते ठंड, ताप, धुजारो [कंपवु ] छेदन शाखा (डाळीओनुं) खेचबु; क्षोभ पमाडवो मरडवु ; भांगीनाखर्बु. एवां अनेक उपद्रवोने सहेवा; छतां पण, पोतानां स्थानने तेमां स्थिर बनीने ते छोडतां नथी. ते प्रमाणे साधुने बोध आपे छे के,
सूत्रम्
॥६४७॥