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आचा०
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| जेनां दूर थयां ते निष्कर्मदर्शी छे, 'इह' - आ संसारमां मर्त्य [ माणस] लोकमां जे निष्कर्मदर्शी छे! तेज बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छेदनाराओ छे, शुं आधार लइने परिग्रहने छेदे अथवा निष्कर्मदर्शी बने ते कहे छे, 'कम्माणं' विगेरे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगोवडे जे कर्म बन्धाय छे. ते ज्ञानावरणीय विगेरेनुं सफळपणुं देखीने एटले ज्ञानावरणीयनुं फळ ज्ञान ढंकावुं छे, दर्शनआवरणीयनं देखवामां विघ्नरूप छे, वेदनीयनुं फळ रोग विगेरे दुःखो सुखो भोगववाना छे.
प्रश्नः - बधां कर्मना विपाकना उदयने इच्छता नथी ? प्रदेश उदयने पण सद्भाव होय छे। अने तप करवाथी क्षय पण थाय |छे त्यारे कर्मनुं सफळपणुं केवी रीते घटे. आचार्यनो उत्तरः- ते दोष नथी, अमने बधा प्रकारनुं इच्छवापणुं अहीं नथी, पण द्रव्य पूर्णपणुं मानीए छीए अने ते छेज, एटले दरेकने आठज कर्मनो उदय छे, एम नहि पण बधा जीव आश्रयी सामान्यथी जोतां आठे कर्मनो सद्भाव छे; तेथी ते कर्मनुं अथवा कर्मनुं मूळ आश्रव छे. तेनाथी निश्चयथी नीकळी जाय, अर्थात् आश्रव आवे तेवं कृत्य न करे. प्र - कोण न करे ? उ:- वेदविद् जेना वडे सघळं चर-अचरवेदाय, ते वेद जैनागम छे, तेने जाणे ते वेदविद् जाणवो अर्थात् सर्वज्ञना उपदेशमां वर्तनारो होय ते आ नवां कर्म न बांधे. आ अमारा एकलानो अभिप्राय नथी; पण सर्वे तीर्थंककरोना आ आशय छे ते बतावे छे.
जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघऽदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमणा पणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्वंसि परि (चिए) चिहिंसु, साहिस्सा -
सूत्रम्
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