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आचा०
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भेदथी भेदो योजाय स्थविर कल्पिआचार्यो 'प्रथम भंगमां छे, वीजा भांगामां तीर्थंकरो छे, त्रीजा भांगामां अहालंदिक छे तेमने कोइ वखत अर्थनी प्राप्ति थंइ न होय, त्यारे आचार्य विगेरे पासेथी तेमने तेना निर्णयनो सद्भाव छे, अने प्रत्येक बुद्धोने उभय |[लेवुं आप ने भगवुं भणावखं] तेनो निषेध होवाथी तेओ चोथा भांगामां छे, पण आ जग्याए प्रथम भंगमां आवेला ने भणवा भाववानो सद्भाव होवाथी तेनो अधिकार छे, अने तेवा हृदरूप आचार्यनोज अहीं दृष्टांत छे, अने ते हृद निर्मल जलनो भरेलो तथा सर्व ऋतुमां जन्मनारां [ उत्पन्न थनारां] कमळोथी शोभायमान छे, समभूभागमां रहेल पाणीनुं नीकल अने आवकुं नित्यज | थाय छे, पण कोइ दहाडो सुकातो नथी, अने सुखेथी तेमां तरवानुं तथा नीकळवानुं बनी शके तेवो छे, तथा उपशांत ते रज विगेरे जे पाणीने काळं बनावे ते जेमांथी दूर थयेल छे, तथा जुदी जुदी जातना जळचर जीवोना समूहने वचावतो अथवा जळचर जीवोवढे पोतानी रक्षा करतो रहेल छे, आ आपणी चालु क्रिया दृष्टांतमां लेवानी एटले आ हृद जेवा आचार्य छे, ते प्रथम भांगाना लेवा, पांच प्रकारना आचार युक्त छे. अने आचार्यनी आठ प्रकारनी संपदाथी जोडायेलो छे, ते बतावे छे.
आया सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई । एए सुसंपया खलु अहमिआ संगहपरिन्ना ॥१॥
आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति, अने आठमी संग्रह - परिज्ञा छे, अर्थात् आचारमां सारो, सिद्धांतनुं पूर्वापरनुं ज्ञान, शरीर सुंदर, वचन माननीय होय; वाचना आपवामां होंशीयार होय; बुद्धि तीक्ष्ण होय; प्रयोगमतिवाळो तथा साधु समुदायने योग्य उपकारण विगेरेनो संग्रह करनारो होय.
सूत्रम्
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