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आचा०
॥२५३॥
चार प्रकृतिओ भवविपाकिनी छे. ( ते भवमां गया पछी भोगवाय छे. तथा चार अनुपूर्वीओ क्षेत्रविपाकीनी छे. ) तें क्षेत्रम जतां उदयमां आवे छे.
शरीर, संस्थान, अंगोपांग, संघात, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उद्योत, आतप, निर्माण, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ तथा अशुभ रूपवाळी छे, ते बधीए पुद्गलविपाकीनी छे, अने बाकीनी ज्ञान आवरण विगेरे जीवविपाकीनी छे, एम अनुभाव बंध को.
हवे प्रदेशबंध कहे छे - ते एक प्रकार विगेरे बंधकनी अक्षेपाए थाय तेमां कोइ एक प्रकारे कर्म बांधे, ते वखते प्रयोग कर्म वडे एक समयमा ग्रहण करेला पुद्गलो सातावेदनीयना भाववढे विशेषे करीने परिणमे छे, पण छ प्रकारनुं कर्म बांधनारने आयुष्य तथा मोहनीयकर्म छोडीने छ कर्मनो बंध जाणवो; तथा सात प्रकारे बांधनारने आयुष्य छोडीने सात प्रकारे जाणवो; तथा आठ प्रकारनां कर्म बांधनारो ते आठ प्रकारे जाणवो; तेमां पहेला समयमां ग्रहण करेलां पुद्गलो समुदानवडे, बीजा विगेरे समयमां अल्प बहुप्रदेशपणे आ कर्मवडे स्थापे छे.
मां आयुष्यनां थोडा पुद्गलो छे, तेथी विशेष अधिकनाम गोत्रना प्रत्येकना छे, ते बने ( बराबर) तुल्य छे, तेथी विशेष अधिक ज्ञानदर्शन-आवरणना तथा अंतरायना देरेकना छे, तेथी विशेष अधिक मोहनीयकर्मना छे.
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प्रश्नः - तेथी विशेष अधिक एम निर्द्धारणमां पांचमी विभक्ति, छे, ते पा. २-३ ४२ सूत्र प्रमाणे कराय छे, एटले एनो अर्थ
सूत्रम्
॥२७३॥