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आचा०
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विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकखइ, एस अणगारिति पच्चइ, | अहो य राओ परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठाइ संजोगट्टी अट्टालोभी आलूंपे सहकारे विणिविचिते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्र से पिच्चबले से देवबले से रायवले से चोरबले से अतिहिबले से किविणबले से समणवले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्त्रमाणे, अदुवा आसंसाए ( सू० ७५ )
सर्व
भरतचक्रवर्ती विगेरे कोइ लोभना कारण बिना पण दीक्षाने मेळवीने अथवा सूत्र पाठांतरमां विणइतुलोभं छे तेनो अर्थ संज्वलन लोभने जडमूळथी दूर करीने पोते घाति कर्मनी चोकडीने दूर करीने आवरण रहित निर्मळ केवळज्ञान प्राप्त विशेषथी जाणे छे अने सामान्ययी जुए छे. अर्थात् जेणे पूर्वे बतावेलो अनर्थोनुं मूळ जे लोभ छे. तेने तज्यो छे तेनो लोभ दूर तां मोहनीयकर्मक्षय थतां अवश्ये घातीकर्मनो क्षय थाय छे अने निर्मळ केवळज्ञान प्रगट थाय छे तेथी बीजां कर्म जे भवउप ग्राहक छे ते पण दूर थाय छे ( जेनां घाती कर्म दूर थयां तेना अघाती कर्म सर्वथा स्वयं नष्ट थाय छे.) तेथी लोभ दूर थां कर्मा एवं विशेषण सूत्रमां आप्युं छे. आ प्रमाणे लोभतजवो दुर्लभ अने तजवाथी अवश्य कर्मनो क्षय थाय छे तेथी शुं करवुं ते क
सूत्रम्
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