________________
आचा०13 संति ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिज्जासि तिबेमि (सू० १८४) धृताध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥६-२॥ सूत्रम् ॥६७३॥
बधा परिसहोनी थती वेदनाने सहन करी दुःखने अनुभवतो छतां चित्तमां शांति राखे. प्रश्न. केवो बनीने ? उ० सम्यक्प्रकारे दर्शन पामेलो ते समित दर्शनवाळो अर्थात् सम्यग्दृष्टी बने. ते परिसहोने सहन करनार साधुओ केवा होय ते कहे छे, ते निष्किंचन
॥६७३॥ निग्रंथ (भावनग्र) जीनेश्वरे वतावेला छे. आ मनुष्य लोकमां आगमन धर्मरहित छे. अर्थात् घर छोडीने दीक्षा लीधा पछी पाछा घेर जवानो इच्छा करता नथी, पण पोतानी दीक्षामां लीधेली प्रतिज्ञा पूरीपाळी पंच महाव्रतनो भार वहन करे छे, बळी जेनावडे आज्ञा कराय ते जिनेश्वरनुं वचन तेज मारो धर्म छे. तेथी ने बरोबर पाळे. अथवा धर्मनुं अनुष्ठान पूरेपुरु करे, अने विचारे के धर्म तेज मारे सार छे, वाकी वर्षा पारकुं [असार] छे, एथी हुँ तीर्थकरना उपदेश वडे विधि अनुसारे बरोबर क्रिया करुं प्र-धर्म केवीरीते आज्ञाथी पळाय ? ते कहे छे, 'एप.' आ बतावेलो उत्तर (उत्कृष्ट) वाद अहिं मनुष्योने कहेलो छे. 'किंच' वळी आ कर्म
दूर करवाना उपायरूप संयममां समीप (अंदर) रत (लीन) थइने आठ प्रकारना कर्मने झोपतो [ दूर करतो] धर्मने पाळे वळीला से बीजुं शुं करे? ते कहे छे.
जेनावडे ग्रहण कराय ते आदानीय (कर्म) छे. तेने जाणीने मूळ उत्तर प्रकृति- विवेचन करे, अर्थात् साधुपणुं निर्मळ पाळीने | क्षय करे, अहीं संपूर्ण कर्म दूर करवामां असमर्थ जे वाह्यतप छे, तेने आश्रयी कहे छे, आ जैनसिद्धांतमा केटलाक शिथील [ओछां] | कर्मवाळाने एकचर्या एटले एकल विहारनी प्रतिमा अंगीकार करेली होय छे, तेमां जुदी जुदी जातीना अभिग्रहो तप तथा चारित्र ।
5PENS-
SECREAM
A
-CARE