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आषा०
सूत्रम्
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स्कंध २ जो (अध्ययन पांचमुं) जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत । न्यत्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थ तीर्थाधिपर्नुतम् ॥१॥ । अनादि, अनंत काळ रहेनालं, अनेक गुण रत्नोथी भरेलु, बधा मतवाळाने सीधे रस्ते लावनार अने नीर्थकरोए नमस्कार करेलु ए, तीर्थ (जैन शासन ) जयवंतु वर्ने छे,
नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नाचितांइये ॥२॥ सदाचार बतावनाराअने नमेलाबधा देवताओना मुकुटना रनोथी जेना पग पूजीत छे. एवा श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार थाओ.
आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः, । भवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम् ॥
आरिप्सितेऽर्थे गुणवान कृती सदा । जायेत निःशेषमशेषितक्रियः॥३॥ आचारांग सूत्ररूप मेरुपर्वतनी चूलिका समान आ चूलिकामा जे थोडो विषय आवेल छे, तेने थोडामां कहुं छ कारण कारण के हमेशा कृत्य करनारो गुणवान पुरुष आरंभेला इच्छित अर्थमां वाकी रहेली क्रिया करवाधीज संपूर्णपणा(नी अर्थसिद्धि)ने पामे छे. नव ब्रह्मचर्यअध्ययनरूप आचार प्रथम श्रुतस्कंध कह्यो, हवे अग्रश्रुतस्कंध आरंभे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे.
पूर्व आचारना परिमाणने बतावतां कह्यु के-- नववंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयग्गेणं ॥१॥ नव ब्रह्मचर्यवाळो, अढार हजार पदवाळो पंच चूला सहित पदोना अग्रवडे घणो.घणो आ वेद (जैनागाम)आचारांग थाय छे.