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आचा०
॥ ८१२॥
अने ते नवमो गुण ( गुणस्थान ) तेमां रहेंलो एकवीस मोह प्रकृतिनो अंतर करीने नपुंसक वेदने उपशमाचे छे. त्यारपछी स्त्री वेद पछी हास्यादि पटक पछी पुरुष वेदना बन्ध उदयनो व्यवच्छेद थाय छे. त्यार पछी वे आवलिकामां एक समय ओछे पुं वेदनो उपशम धाय छे. त्यार पछी वे क्रोधनो अने पछी संज्वलन क्रोधनो, पछी एज प्रमाणे मानत्रिक अने मायात्रिकनो उपशम करे छे. त्यार पछी संज्वलन लोभना सूक्ष्म खंडो बनावे छे. अने ते करणना काळना चरम समयमां वचला वे लोभने उपशमावे छे. आ प्रमाणे अनिवृत्तिकरणना अंतमां सतावीस प्रकृति उपशांत थाय छे, त्यार पछी सूक्ष्म खंडोने अनुभवतो सूक्ष्मसंपरायवाळो थाय छे. (दश गुणस्थान फरसे छे.) तेना अंतमां ज्ञान अंतराय दशक दर्शनावर्ण चतुष्क यशकीर्त्ति अने उंच गोत्र एम सोळ प्रकृतिना बन्धनो व्यवच्छेद थाय छे. ए प्रमाणे मोहनीय कर्मनी २८ प्रकृति संज्वलन लोभ उपशमावतां उपशांत वीतराग थाय छे, (अगीयारमुं गुणस्थान फरसे छे.)
'अने ते जघन्यथी एक समय अने ते उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त्त छे अने ते गुणस्थानेथी पडवानुं कारण कांतो मनुष्य भव समाप्त थाय अथवा काळ क्षय थाय. अने ते जेम चढेलो छे अने वंधादि व्यवच्छेद करे छे, तेज प्रमाणे पाछो पडतां कर्म बंध बांधे छे. अने तेमांथी कोइ पडतां मिथ्यात्र नामना पहेला गुणस्थाने पण जाय छे। अने जे भवक्षयथी पडे छे, तेने पहेला समयमांज बधा करणो प्रवर्त्ते छे. कोइ तो एक भवमां पण बे वार उपशमश्रेणि करे छे.
क्षपकश्रेणिनुं वर्णन.
आ श्रेणी करनार मनुष्यज आठ वरसुनी उपरनो 'आरंभक' होय छे। अने ते प्रथमज - करणत्रय पूर्वक, अनंतानुबन्धी कषायोने
सूत्रम्
॥८९२॥