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आचा०
सूत्रम्
॥५८८॥
६ संयम तरफ छे. ते दिशा, अने ते सिवायनी बीजी विदिशा छे, तेमाथी प्रकर्षे तरेलो ते विदीक प्रतीर्ण छे, अने एवो होय ते
आरंभ रहित बने, कुमार्गनो परित्याग करवाथी ते पापारंभनो अन्वेषी न होय, वळी चरण ते चार छे, अने ते अनुष्ठान छे. निर्विण्णनुं अनुष्ठान करे ते निर्विष्णचारी छे, क्याथी होय? ते कहे छे. 'प्रजावरतः' वारंवार जन्मे ते प्रजा (पाणीओ) तेमां अरत होय,
एटले तेना आरंभथी निवृत्त होय, अथवा ममख विनानो होय, अने शरीर विगेरेमां पण जे ममख रहित होय ते निर्विष्णचारीज ५ होय छे, अथवा प्रजा (स्त्रीओ) तेमां अरक्त होय ते आरंभमां पण निर्वेद (मोहरहित) होय, कारण के कारणना अभावमां कार्यनो पण अभावज होय छे, अने जे प्रजामां अरक्त अने आरंभरहित छे, ते केवो होय ? ते कहे छे:
से वसुमं सबसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणि पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोगति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सकं सिढिलेहिं अद्दिजमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहि, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओहंतरे मुणी, तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ॥ सू० १५५ ॥ लोकसारेतृतीयोदेशकः ॥ ५-३ ॥ वसु ते द्रव्य छे, अने अहीं तेनो अर्थ संयम छे, ते जेने होय ते निवृत्तारंभवाळो छे. अने ते मुनि वसुवाळो छे, तथा जे
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