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| अने संयमनो निर्वेद न होय; अने अनिर्वेदी होय; तो आवीपण भावना भावे. जेमके—जो, हुं भव्य नही होउं तो, मने संयमभाव पण नथी. के, प्रकट - ( खुल्लुं करीने) गुरु कहे छे तोपण, हुं समजतो नथी. आ प्रमाणे खेद पामताने आचार्य समाधिनां वचन कहे छे केः- हे साधु ! खेद न कर ! तुं भव्य छे. कारण के, तुं सम्यक्त्व पाम्यो छे, अने ते ग्रन्थीभेद विना न होय. अने ग्रन्थभेद | भव्यत्व विना न होय, कारण के, अभव्यने भव्य, के अभव्यपणानी शंका पण न थाय.
वळी, अविरतिनो परिणाम वार कपायनो क्षय उपशम उपशम के क्षय थतांज होय छे, अने ते विरति तुं पाम्यो छे. तेथी, |दर्शनचारित्र - मोहनीयनो तारे क्षयोपशम थयो छे, नहीतो, सम्यग्दर्शन- चारित्रनी प्राप्ति न होय पण, तने कह्या छतां जो, वधा पदार्थो न समजाय; तो, ज्ञानावरणीयकर्मना उदयनुं लक्षण जाणवुं त्यां तो, तारे श्रद्धारूप - सम्यक्त्व स्वीकारं. ते कहे छे:
तमेव सच्चं नीसंकं जं जिण हिं पवेइयं ( सू० १६२ )
ज्यां आगळ स्वसमय, परसमयना जाण आचार्य न होय; तथा, झीणी ग्रढ बाबतोमां, अने अतींद्रिय पदार्थोमां वन्ने पक्षने मान्य दृष्टांत तथा सम्यहेतुना अभावथी ज्ञानावरणीयना उदयथी सम्यग्ज्ञान न होय; त्यां पण आ प्रमाणे चिंतत्र के, तेज एक सत्य छे अने तेज निःशंक छे के, जिनेश्वरे कहेला अत्यंत सूक्ष्म-अतींद्रिय पदार्थों जे फक्त आगमथी मानवायोग्य छे ( ते मारे | प्रमाण छे. ) तथा मानवामां शंका न होय; ते निःशक्ति कहेवाय के धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गळ विगेरे जे तीर्थंकरे कहेलुं छे, ते रागद्वेषने जीतेला जिनो छे, माटे तेमनुं कहेलुं सत्यज छे. आधुं श्रद्धान करं. बरोबर रीते पदार्थ न समजाय; तोपण, शंका न करवी.
सूत्रम्
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