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आचा०
सूत्रम्
॥८७४॥
॥८७४॥
से मिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिजा-इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिजइ अग्गपिंडे दिज्जइ नियए भाए दिज्जइ नियए अवभाए दिज्जइ. तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निइउमाणाई नो भत्ताण वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज वा ॥ एवं खलु तस्स भिम्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबहिं समिए सया जए [मू०९] तिबेमि ॥ पिण्डैपणाध्ययन आद्यांद्देशकः ॥ १-१-१॥
ते भिक्षुक गृहस्थीना घरमा जवानी इच्छावाळो आवां कुळो जाणे के, आ कुळोमां नित्य पिंड (पोष) अपाय ठे, तथा अग्रपिंड कमोदनो भात विगेरे प्रथमथी भिक्षामाटे स्थापीने अपाय छे, ते अग्रपिंड नित्य भाग अर्धपोष अपाय छे, तथा पोषनो चोथो है
भाग अपाय छे, तेवा नित्य दानयुक्त कुल, नित्य दान देवाथी स्वपक्ष तथा परपक्षना साधुओ जाय छे. तेनो भावार्थ आ छे के, ॐ स्वपक्ष ते सयंत, परपक्ष वाकीना भिक्षुको ते बधा भिक्षामाटे जना होय, अने ते दानदेनारा एम समजे के घणा भिक्षुकोवे आपीए ४ | एथी घणो आरंभ करी तेओ छए कायनो आरंभ करे, अने थोडं रांधे तो बधाने अंतराय थाय माटे वधारे रांधे एवा स्थानमां | उत्तम साधु गोचरी माटे के पाणी माटे त्यां न जाय, हवे बधानो उपसंहार करे छे.
प्रथमथी छेवटसुथी ते भिक्षुने समग्र जे उद्गम, उत्पादन ग्रहण एषणा संयोजना [प्रमाणथी वधारे] अंगार धुमकारणोवडे 13 समजीने सुपरिशुद्ध पिंड साधुओए लेवो, तेज ज्ञानाचार समग्रता दर्शन चारित्र तप अने वीर्याचार संपन्नता छे. अथवा आ सूत्रवडे समग्रता देखाढे छे, के जे सरस विरस विगेरे आहार मळे छे, तेनाथी अथवा रूप रस गंध स्पर्शवडे साधु समित छे. अर्थात, समभाव राखनार संयत छे, अथवा पांच समितिथी समित छे, शुभ- अशुभमां रागद्वेष रहित छे, आवो साधु हित साधवाथी सहित