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आचा०
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ज्ञान पण निष्फळ जाय छे, कारण के ते ज्ञाननें अर्थपणुं क्रिया साथे ठे, कारण के जेनी जे अर्थ माटे प्रवृत्ति होय, तेनुं प्रधानपणुं छे, अने ते सिवायर्नु अप्रधान' (गौण) छे, ए न्याय छे, संविद बढे विषय व्यवस्थाननुं पणे अर्थ क्रियापणाथी अर्थपणुं : क्रियानुं प्रधानपणुं बतावे छे, अन्वय व्यतिरेको पण क्रियामां सिद्ध थाय छे, कारण के सम्यक चिकित्सानी विधि जाणंनारो यथार्थ औषधनी प्राप्ति करे, तो पण उपयोग क्रिया रहित होय तो ते वैद रोगने दूर करी शकतो नथी. तेज का छे. के
शास्त्राण्यधीत्यापि भवंति मूर्खा; । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ॥
संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि । किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥ शास्त्रोने भणीने पण केटलाक क्रिया न करनारामूर्खा होय छे; पण जे थोड़े भणेलो होय पण क्रिया करनारो होय ते विद्वान् । छे. कारण के औषध चिंतवो, पण ते चिंतवेलु औषध विना क्रिया करे शुं रोगीने निरोगी बनावी शकशे के ? वळी
क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतं; यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् मुखितो भवेत् ॥१॥ पुरुषोने क्रियाज फलदायी छे. पण ज्ञान फलदायी नथी कारण के स्त्रीःखावाना पदार्थ, तथा भोगववानी वस्तुओनो जाणनार है। एकला ज्ञानथी सुखीओ थतो नथी! पण ते क्रियाथी युक्त होय ते माणस पोतानी इच्छा प्रमाणे अर्थ मेळवनारो थाय छे.
. जो पूछता हो के केवी रीते ! तो कहं छं. के " निश्चयथी देखेलामां न उत्पन्न भएलुं नथी," अने ज्यां सकल (वा) लोकमां प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ होय त्यां बीजुं प्रमाण मागी शकाय नहीं. ! तथा परलोक सुख वांच्छतां होय, तेमणे पण तप चारित्रनी है क्रियाज करवी, जिनेश्वरनुं वचन पण तेज कहे छे.
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