________________
आचा०
॥८६॥
भोवी, तथा घना दाणा विगेरे अदकेल होय, इरिन ते दरो जुन्दार विगेरे अंकुरावाडं लीलं घास होय, तेनी साथे मिश्र थइ गयु _ . होय, तथा काचा पाणीथी भींजायलं होय, अथवा सचिच रजथी परिएंटित (खरडायेलं.) भोजन पाणी खादिम के खादिम होय रस ते पारे भकारनो आहार देनारना हाथमां होय के गृहस्थना वासणमां होय, ते सचित्त अथवा आधाकर्म विगेरे दोपथी अनेपणीय (दोपित) होय एy जाणे तो ते भावभिक्षु मळतुं होय, तो पण न ले, आ उत्सर्गनी विधि छे, हवे अपवादनी विधि कहे छे. के
द्रव्यादि एटहे द्रव्य क्षेत्र काळ भाव विचारीने जरुर पढतां लेबु पढे तो ले पण खरो ते बतावे छे, द्रव्यथी ते द्रव्य जरुरनु हो । * अने पीजे मळवू दुर्लभ होय, तथा क्षेत्रथी ते बधा साधुने साधारण गोचरी मळे तेम न होय एटले लोको दृष्टि रागी होय विशेषथी अन्यदर्शनीना रागी होय ? कालथी दुकाल विगेरे होय. अने भावथी ग्लान मिंदवाड] विगेरे होय, विगेरे कारण
सो गीतार्थ साधु लाभ विशेप होय अने दोप ओछो लागतो होय तो ते ले. * पळी कोइ वखत अजाणपणे जीवातवालं अथवा जीव उत्पन्न थाय (तेवु विदळ विगेरे) उन्मिश्र भोजन विरे र तो तेनी परव्यवानी विधि कहे छे." से अहच इत्यादि " एटले कोइवार उपयोग राखवा छतां पण भूलथी ओचिं विगेरे भोजन लेवायु होय तो, ते 'अनाभोग' देनार, लेनार ए येना भेदथी चार प्रकारनो थाय छे, [जेमके (१) साधुनो उप-५ योग होय गृहस्थनो न होय, [२] ग्रहस्थनो उपयोग होय साधुनो न होय, [३] वन्नेनो उपयोग न होय; (४) वन्नेनो उपयोग : होय. आयो आहार अशुद्ध आवेलो जणाय तो ते आहार लइने एकांतमा जाय, एटळे ज्यां गृहस्थ लोक.देखे नहि, तेम आवे । पण नदि, ते एकांत स्थळ अनेक भकारनुं होय छे. ते बताये छे.
:14