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आचा०
॥ ५०६ ॥
करेलां कर्मथी साता असाताना उदययी सुख दुःख भोगवे छे. तेथी सत्त्र छे, अथवा माण भूत जीव अने सत्व ए बधा एक अर्थवाळा शब्द छे, कारण के तत्व भेद पर्यायोवडे पदार्थने स्वीकारवानो छे, तेथी करीने उपरना वधा शब्दो प्राणीना पर्यायवाळा छे, ते जीवोने दंड चाबखा विगेरेथी हणवा नहि; तथा बीजा पासे वळजवरी करीने हणाववा नहि; तथा नोकर, दास, दासी विगेरे उपर ममखभावथी तेमनो संग्रह न करवो; तथा शरीर अने मननी पीडा उपजावीने परितापत्रा (संतापवा ) नहि; तथा जीवथी प्राण दूर करवावडे तेने अपद्रावण न करवुं. आवो जिनेश्वरनो कहेलो दुर्गतिने अटकाववाने भुंगळ समान तथा सुगतिनी पगथी समान धर्म छे, अने ते धर्म पुरुषार्थना प्रधानपणाथी विशेषणो बतावे छे. पापना अनुबन्ध रहित शुद्ध छे, पण बौद्ध तथा ब्राह्मणोथी एकेन्द्रियथी पचेन्द्रिय सुधीना जीवोनी हिंसानी अनुमतिने दुःखरूप - कलंक छे. (एटले, ब्राह्मणो यज्ञ करावे छे, अने बौद्धना साधुओ साधु माटे रांधेलं खाय छे, तेथी वधनी अनुमतिनो दोष लागे छे) तेवो दोष जैनधर्ममां नथी. वळी, पांच महाविदेहने आश्रयी | ते निरंतर (नित्य) छे, तथा शाश्वत तथा (मोक्ष गति आपवाथी शाश्वत छे अथवा नित्य होवाथी शाश्वत छे, पण एम न थाय; के भव्यत्व माफक प्रथम थइने पछी न थाय; अने घटना अभाव माफक प्रथम न थइने नित्य थाय; पण आ धर्म तो त्रणे काळमां शाश्वत छे. वळी, आ जीवसमूहने दुःखसागरमा डुबेल जाणीने तेमांथी पारजवा, जंतुनां दुःख जाणनारा एवा केवळी भगवंतो ए बताव्यो छे. आ गौतमस्वामीए पोतानी बुद्धिए न कहेलुं बताववानुं कारण शिष्योनी मति स्थिर करवा माटे कहां के : - आ शुद्ध धर्म जीनेश्वरनेा कहेलो छे. आज सूत्रमां कहेला अर्थने नियुक्तिकार सूत्र - स्पर्शीक वे गाथावढे कहे छे:
जे जिणवरा अईया, जे संपइ जे अणागए काले । सव्वेवि ते अहिंसं, वर्दिसु वदिहिंति विवदिति ॥ २२६॥
सूत्रम ॥५०६ ॥