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आचा०८
॥९६०॥
(अहीं मा
जे भयंतारो तहप्पगाराई एसगाणि वा जाप गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अभिकंतकिरिया यावि भवइ ३॥ (सू०८०)
सूत्रमू ( अहीं प्रज्ञापक विगेरेनी अपेक्षाए) पूर्व विगेरें दिशामां श्रावको अथवा प्रकृतिमद्रक अन्य गृहस्थो नोकरडी सुधी होय, तेओने साधुनो “आवो उपाश्रय कल्पे" एवी खबर न होय पण उपाश्रय आपवाथी स्वर्ग विगेरेनु फळ प्राप्त थाय, तेवू क्यायथी
॥९६०॥ जाणीने श्रद्धा करीने हृदयमां ते मचवाथी घणा साधु विगेरेने उद्देशीने त्यां आराम विगेरेमां यानशाला विगेरे पोताना माटे करतां साधु विगेरेने जग्या आपवा माटे ते मकानो मोटा कराव्यां होय, ते मकानोनां नाम कहे छे, आदेशन ( लुबारनी शाळा ) आयतन (देवकुलनी जोडे बनावेल ओरडाओ) देवकुल (देवळ) सभा (चारवेदने भगवानी पाठशाळा ) परख पुण्य (दुकानो) पुण्यशाळा (घंघशाळा) यान ग्रह (रथ विगेरे राखवाk स्थान ) यानशाळा ( रथ विगेरे बनाववान स्थान ) सुधाकर्म ते (ज्यां खडीन
परिकर्म थाय) आ प्रमाणे दर्भ वधं वल्कन अंगार काष्ठ कर्म विगेरे छे, पटले जेमां घास चामडां झाडनी छाल के कोयला के * लाकडांना कामर्नु कारखार्नु होय, मसाण होय, शून्य घर होय, शांतिकर्मन घर होय, पर्वत उपरखें घर होय, सुधारेली पहाडनी 8 गुफा होय, शैल उपस्थान ( पाषाणनो मंडप ) होय, आवां घरो चरक ब्राह्मणो विगेरेथी पूर्व वपरायां होय, पछी खाली पडेलां 15 होय, तो पछबाडे साधु तेमां उतरे, तो तेमां अल्प दोष (निर्दोष) होय, छे, आबु गुरु 'शिष्यने कहे छे, ( अर्थात् तेवा मकानमां उतराय छे.) ____ इह खलु पाईणं वा जाव रोयमागेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमए समुदिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई
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