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आचा० ॥३३०॥
अंगोपांग देवगति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नरकगति अने अनुपूर्वी मली वे ए वैक्रिय चतुष्टय (चोक) ए १२ कर्म प्रकृतिने निर्लेप करीने ( दूर करीने) वाकीनी ८० प्रकृतित्रालो बनी तैजस अने वायुकायमां उत्पन्न थयो त्यारपछी मनुष्यगति तथा अनुपूर्वी | मली वे ते दूर करीने उंच गोत्रने पल्योपमना असंख्येय भागवडे उदल करे छे. एथी तैजस वायुकायनो पहेलो भांगो थयो. ते आ प्रमाणे नीच गोत्रनो वन्ध, अने उदय पण अने तेज कर्मनी सकर्मता (सत्ता) छे. त्यांथी नीकळीने बीजी कायना एकेन्द्रियमां आवीने उपजे तो तेज भांगो थाय; अने त्रसकायमां पण अपर्याप्त अवस्थामां पण तेज भांगो याय; अने ज्यांसुधी उंच गोत्रनो निर्लेप न थाय; तो बीजो चोथो एम वे भांगा थाय ते बतावे छे. नीच गोत्रनो बंध, अने उदय, तथा तेज कर्मपणाथी सत्ताथी उभयरूपे बीजो भागो थाय; तथा ऊंच गोत्रनो बन्ध नीच गोत्रनो उदय, अने सत्कर्मपणुं बन्ने रूपे छे. ए चोथो भांगो छे, पण बाकीना चार भांगा नथीज थतांः कारण केः - तिर्यचयोनिमां उंच गोत्रना उदयनो अभाव छे. तेज उंच गोत्रना ( अहंकारथी ) उद्वलनवडे कलंकवाळा भावमां आवेलो जीव अनंतकाळ सुधी एकेन्द्रियमां रहे छे, अथवा उद्बलन थया विना तिर्यचमां अनंत उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणी रहे छे.
प्रश्न - आवलिकाना संख्येय भाग समय संख्यावाळा पुद्गल परावर्त्त एम जोइए; पण पुद्गलपरावर्त्त केम जोइए ?
आचार्यनो उत्तरः- जेओ औदारिक, वैक्रिय तेजस भाषाअनापान, (श्वासोश्वास) मन = ( आ छ थाय छे, पण सात लखेल छे. आहारक ए टीकामां लखवुं रही गयुं छे.) कर्मसप्तकथी संसारना वचला भागमां पुद्गलो आत्मानी साक्षे एकमेकपणे परिणमेलाछे, ते
सूत्रम्
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