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5थाय छे. एटले वाकीना अगीयार भेदमां पण आ जाणवु तथा 'धृनन' ते भिन्न ग्रन्धिवाळाने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यक्त्वमा रहे, आचा०
द तथा 'नाशन' कर्म प्रकृतिन स्तिवुक सङ्क्रमणवडे एक प्रकृतिनु बीजी प्रकृतिमां सङ्क्रमण थq, 'विनाशन' शैलेशी अवस्थमा सम्पू-18
र्णताथी कर्मनो अभाव करवो, 'ध्यापन' उपशमश्रेणिमां कर्मन उदयमां न आवद्यु, क्षपण ते अप्रत्यख्यानादि क्रमवडे क्षपकश्रेणिमां॥८०८॥ मोह विगेरेनो अभाव करवो, शुद्धिकर-अनंतानुबन्धीना क्षयना प्रक्रमथी क्षायिक सम्यक्त्व मेळवq, 'छेदन' उत्तरोत्तर शुभ अध्यव-2
सायमां चडवाथी स्थितिनी ओछाश करवी, 'भेदन' ते चादर संपराय अवस्थामा संज्वलनना लोभना खंड खंड करी नाखवा, (फेडण) त्ति-चौठाणीआ रसवाळी अशुभ प्रकृतिने त्रण रसवाळी 'विगेरे बनाववी. 'दहन' ते केवलीसमुद्घातरुप ध्यान अनिवडे वेदनीयकर्मर्नु राखतुल्य बनावयु, अने बाकीना कर्मन वळेला दोरडा माफक बनाव, 'धावन' ते शुभ अध्यवसायथी| मिथ्यास पुद्गलोर्नु सम्यक्त्वभावे बनावबु, आ बधी कर्मनी अवस्थाओ माये उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी केवलि समुद्घात शैलेशी अदावस्था प्रकट करवाथी प्रभूत रीते प्रकट थाय छे, [आत्मा निर्मळ करवा कराय छे] एटला माटे प्रक्रमाय (आरंभाय) छे, तेमां उप
शमश्रेणीमां प्रथमज अनंतानुवन्धीओनी उपशमनी कहेवाय छे, अहीं असंयतसम्यगृदृष्टि देशविरति प्रमत्त अप्रमत्तमांथी कोइ पण बीजा योगमां जतां आरंभक होय छे, तेमां दर्शन सप्तक एकवडे उपशमाय छे, ते कहे छे.
अनंतानुवन्धी चोकडी, उपरनी त्रण लेश्यामां विशुद्ध होवाथी साकार उपयोगवाळो अंत:कोटीकोटी स्थितिनी सत्तावाळो परिवर्तन थती शुभ प्रकृतिओनेज बांधतो पति समये अशुभ प्रकृतिओना अनुभागने अनंतगुण हानीए ओछी करतो शुभ प्रकृतिओने से | अनन्त गुण वृदिए अनुभाग (रस) मा व्यवस्था करतो पल्योपमना असंख्य भाग हीन उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध करतो करणकालथी.