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आचा०
॥१०३२॥
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पहेरवानी विधि कहे छे, आ संबंधे आवेला उद्देशाने आप्रथम मूत्र छे,
से भिक्खू वा० अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा नो धोइज्जा नो रएज्जा नो धोयर ताई वत्थाई धारिजा अपलिउंचमाणो गामंतरेसु० ओमचेलिए, एवं खलु वत्थंधारिस्स 'सामग्गिय ।। से भि० गाहावइकुलं
18 सूत्रम् पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा, एवं बहिय विहारभूमि वा वियारभूमि वा गामणुगाम वा दुइज्जिाज्जा, अह पु० तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सव्वं चीवरमायाए।
ते साधु साधुपणाने योग्य कपडां याचे अने जेवां लीधां होय तेवांज पहेरे, पण तेमां कइ पण शोभा करे नहि, ते कहे छे, लीधेला वस्त्रने धुए नहि, रंगे नहि तथा वकुशपणुं धारण करोने धोइने रंगेला कपडां काइ आपे तो पण लेइने पहेरे नहि तथा तेवां साधुने योग्य कपडां पहेरीने वीजे गाम जतां वस्त्रोने छुपाव्या विना सुखथीज विहार करे, कारणके प्राये आ असार वस्त्रनो धारण करनारो छे, आज साधुनुं संपूर्ण साधुपणुं छे, के आवां सादां कल्पनीय वस्त्र पहेरवां. .
वळी ते भिक्षु गोचरी जाय तो वस्रो बधां साथे लेइ जाय तेज प्रमाणे स्थंडिल जाय अथवा अभ्यास करवा बहार जाय तो 5 पण लेइने जाय, पण एटलं ध्यान राखवू के पिंडएपणामां कह्या मुजब वरसाद के धुमस वरसतां होय तो जिनकल्पी बहार न8/
जाय अने स्थविरकल्पी जोइए तेटलांज वस्त्र बहार लइ जाय, ( आ सूत्रो जिनकल्पी आश्रयी छे, तेम वस्त्रधारीतुं विशेषण होवाथी । स्थविरकल्पीने पण लागु पडे, तो तेमां विरुद्ध नथी, पिंडैपणामां उपधिने लेइ जवानुं कयु. आ सूत्रमा वस्त्रोने आश्रयी कयु छे, )।