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आचा०
॥७७३॥
संसारमा पर्यटन करवाथी श्रांत छे, ते सावध अनुष्ठानथी विरत छे, शोभन लेश्या ते जेणे अंतःकरणनी निर्मळवृत्ति तेजोलेश्या । विगेरे धारण करवाथी तेसुसमाहृत लेश्यावाळो छे, आवो बनीने पूर्वे कहेली प्रतिज्ञा लइने पाळवामां समर्थ छे, ते तप अथवा रोग
सूत्रम् ना कारणे ग्लान भावने पामेलो होय, छतां पण ते पोतानी प्रतिज्ञानो लोप न करतो शरीर त्यागवा भक्त प्रत्याख्यान करे, अने
॥७७३॥ ते भक्त परिज्ञामां-पण काळ पर्यायवडे अनागत् परिज्ञा (वार वर्षनी संलेखनानो समय नथी, तेमां पण काल पर्याय छे, जेणे | शिष्योने भणावी गणावी तैयार,कर्या होय, अने तप वडे संलिखित देहवाळो होय तेनो जे काळ पर्याय मृत्युनो अवसर प्रशंसवार योग्य छे, तेवो आ ग्लान थयेला कल्पधारीने पण एवोज अवसर छे. कारण के बन्नेमा कर्मनी निर्जरा समान छे, ते कल्पधारी भिक्षु ग्लानपणाथी अणशननां विधानमा व्यन्तिकारक कर्म क्षय करनारो छे बाकीनुं बधुं पूर्व माफक जाणवू पांचमो उद्देशो समाप्त..
छटो उद्देशो पांचमो कह्यो पछी छटो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामा बताव्यु, के ग्लान साधुए भक्त प्रत्या15 ख्यान करवू, अने आ उद्देशामां बतावशे के घृतिसंहनन विगेरेथी बळवाळो साधु एकत्व भावनाने भावीने इंगित मरण करे आमा
संबंधे आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. __ जे भिक्खु एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइ
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