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सूत्रम्
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॥६३७॥
कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रुहे न आचा०
संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विजए, अरूवी सत्ता, अ. ॥६३७॥
पयस्स पयं नस्थि, (सू० १९७०) जाति (जन्म) अने मरणना मार्गना उपादान कारणरुप कर्मने ते केवळी साधु उलंघे छे, अर्थात् वधां कर्मोनो क्षय करे छे, अने कर्म क्षय थवाथी शुं गुण थाय छे, ते कहे छे, विविध प्रकारे प्रधान पुरुषार्थपणे रचेलां शास्त्रोना विपयथी तप अने संयम अहनुष्ठाननो विषय अंते मोक्ष आपनार कह्यो छे, ते मोक्ष बधा कर्मना क्षयरूप छे, अथवा जे स्थानमा मोक्षना जीवो [ सिद्ध भवंगतो]
रहेला छे, ते स्थान जे आकाश प्रदेशमा रहेल छे, तेमां पोते रत छे. (मूत्रमा व्याख्यातनो अर्थ मोक्ष लीधो छे) अने त्यां पोते अत्यंत एकांत वाधा रहित सुखवाळा छे, अने क्षायिक ज्ञान दर्शनरुप संपदायी युक्त वनेला अनत काळ रहेवाना छे-(नमुत्युणसां सिव मयल मरुय मणंत मुक्खेय मया वाह मपुणरावित्ति सिद्धि गइ नाम धेयं ठाणं संपत्ताणं नो अर्थ विचारवो.)
प्र०-त्यां केवी रीते रहेला छे? ते कहे छे त्यां शब्दोनी प्रवृत्ति नथी, अर्थात् शब्दोथी कहेवाय एवी त्यां कोइ पण अवस्था नथी, ते वतावे छे, 'सव्वे' संपूर्ण स्वरो ते अध्ययन (भणवान भणाववान) जेम अहीं छे, तेम त्यां वाच्य वाचक संबन्धमा उच्चारण द्र पण नथी, कारण के शब्दो तो रुप रस गंध अने स्पर्श समजाववामां कोइ पण कारणे संकेत काळमां ग्रहण कर्या होय, त्यारे अथवा लं तेनी तुलनामां प्रवते छे, पण त्यां सिद्धोने शब्द विगेरेनी प्रवृत्ति नथी. एथीन मोक्ष अवस्था शब्दोथी कहेवाय तेम नथी; फक्त
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