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आचा०
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आ रोगीने स्पर्श इंद्रिं भान रोगवाळी अग्याएथी नष्ट थाय छे, ते रोगवाळाने हाथमां पकडेलं लाकडं खसी जाय छे, अने सूइ घोंचे तो पण असर न थाय तथा 'सीलीवयं त्ति' श्लीपद ते पग विगेरेमां कंठण पर्णु होय छे, ते आ प्रमाणे- वात, पित्त, कफना | कोपथी छातीमा रोग उत्पन्न थइ जंयामां स्थिर थर धीरे धीरे काळांतरे पगोनो आश्रय करीने सोजो चडावे छे, ते रोगोने इलीपद कहे छे.
पुराणोदक भूमिष्ठा:, सर्वर्तुषु च शीतलाः ये देशा स्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥
जे देशमां पाणी भराइ रहेलुं होय, अने छए ऋतुमां शीतल (भेज) रहेतो होय, तेत्रा देशोमां विशेषे करीने श्लीपद रोग थाय छे
यादयोर्हस्तयोश्चापि श्लीपदं जायते नृणां कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥
मां वे हाथां माणसोने ते रोग थाय छे, पण केटलाक विद्वानोनो एवो मत छे के ते रोग कान होठ अने नाकमा पंण थाय छे तथा 'मधुमेहणि' ति मधु मेह ते, 'वस्ति रोग' छे ते जेने होय ते मधुमेहि कद्देवाय छे, एटले मधना जेवो तेनो पेसाब होय छे, ते प्रमेह, (परमीओ) ना २ भेद छे, ते असाध्य पणे गणाय छे. तेमां बधाए प्रमेदो प्राये वधा दोपोथी थाय छे, तो पण वात विगेरे उत्कट थवाथी २० भेदो थाय छे, तेमां कफथी १० पित्तथी ६ अने वायुथी ४ थाय छे, अने ए वधा असाध्य
अवस्थामां मधुमेहपणामां थाय छे. कां छे के:
सर्वएव प्रमेहास्तु, कालेना प्रतिकारिणः मधुमेह त्वामायान्ति तदाऽसाध्या भवति ते ॥ १ ॥
सूमत्र
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