________________
सूत्रम्
॥५३६॥
छे ते पर थइ पाछा स्व थाय. अने केटल क फरी देखाव देता नथी. ( अर्थात् समुद्रमा तणातां अपार समुद्रमां ज्या भेगा थवानो,
तथा स्थिर रहेवानो तथा मळवानो निश्चय नथी, तथा थोडो काळ पण एकता रहेबानो निश्चय नथी, त्यां कोण पोतान के पारकुंछे?) आचा०
विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । ॥५३६॥
स्वकर्मभिधान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात ॥ २ ॥ उपर प्रमाणे विचारी हुँ एकलो छु, अने मारे पहेलां के पछवाडे कोइ नथी, परंतु मोहनीयकर्मथी आ एक मारा तारानी भ्रांति छे. खरीरीते तो पहेलां पण हुं अने पछी पण हुँ पोते पोतानो खजन छु एवी भावना तमारे भाववी.
सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं नासी भावीति यो मम ॥३॥ हुँ सदा एकलो छु. मारो कोइ पण नथी, तेम हुं बीजा काइनो पण नथी, हुँ जेनो थाउं, तेवो मने कोइ देखातुं नथी! (कर्मसबंध ' छुटतां सौ रस्ते पडे छे.) तेम मारो भविष्यमा याय तेवो पण कोइ नथी.
___ एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ ४ ॥ . पोते एकलोज कर्म बांधे छे, तेनां फळ पण एकलो भोगवे ळे, अने जन्मे छे. अने परे छे पण एकलोज तथा भवांतरमां पण
एकलोज जाय छे विगेरे चिंतवे वळी ते भव्यात्मा साधु शुं करे ? ते कहे छ:-"कसे हि अप्पाणं जरेहि अप्पण" विगेरे. पर (जुदो) आत्मा जे 'शरीर' छे. तेने तपरुप कष्ट वडे अथवा चारित्र विगेरेथी कृश (दुर्वल) बनाव, अथवा कृष एटले कर्म तोडवामां हुं समर्थ
COPE