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आचा०
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मांसनो स्वाद करनारनी शुं दशा थशे, ते पण विचारो ? ) ते विषय रसना स्वादुओ इन्द्रिओने वश थइ शुं फळ मेळवे ते कहे छे, 'एत्थफासे' आ संसारमां इन्द्रियथी परवश थयेलो मूढ बनीने कर्मनी परिणतिरुप स्पर्शोने वारंवार तेवा तेवा स्थान मां ते भोगवे, पाठांतरमां 'एत्थमोहे' छे, आ संसारमां मोह ते अज्ञान अथवा चारित्र मोहमां वारंवार मूढ वने छे, कोण ? उत्तरः- आवंती - जे कोइ गृहस्थ आ लोकमां पेट भरवा पाप आरंभ करनारा छे तेओ (बीजाने दुःख देने ) पोते पाछां तेवां दुःख मेळवे छे, वळी ते गृहस्थाने आश्रय करीने रहेल आरंभ करनारो करावनारो अनुमोदनारो जनेतर के पासत्थो वेष विडंबक साधु छे, ते पण गृहस्थो माफक दुःख भोगवे छे, ते बतावे छे, एएस सावध आरंभमां पडेला गृहस्थोमां शरीर निर्वाह माटे रहेतो जैनेतर के पासत्थो साधुपण आरंभजीवी होय, ते पूर्वे बतावेला दुःखनो भोगीयो थाय, वळी गृहस्थ के जैनेतर तो दूर रहो, पण जे संसारसमुद्री तरवारुप सम्यक्त्व रत्न मेळवीने मोक्षनुं एक कारण विरति परिणाम पामीने पण जो पापकर्मना उदयथी चारित्रने पूरुं न पाळे तो ते पण सावध अनुष्ठान करनारो बने छे, ते कहे छे 'एत्यत्रि' आ अर्हत् प्रणीत संयम मेळवीने रागद्वेषथी व्याकुल बनेलो अंदरथी तपती अथवा उत्कंठा करतो विषयनी आकांक्षाथी रमे छे, ? कोनी साथे ? उत्तरः- पाप कृत्योवडे विषयरस लेवा सावध अनुष्टानमां चित्त लगाडे छे, शुं करतो ? 'असरण' कामाग्नि अथवा पापकर्मथी वळतो जो के सावध अनुष्ठानना अशरण छे, छतां तेनुं शरण लेतो भोगनी इच्छावाळो अज्ञान अंधकारथी छवायेलो दृष्टिवाळो ( कामांध वनेला ) वारंवार अनेक दुःखोने भोगवे छे, गृहस्थ के | जैनेतर दूर रहो पण प्रवज्या (दीक्षा) लेइने पण केटलाक वेष विडंबको दुराचारोने आचरे छे, ते बतावे छे, 'इहमे' आ मनुष्य एकला फरे छे, (चराय ते चरण अथवा चर्या एकलानी चर्या ते एक चर्या) ते एकलविहारीपणुं प्रशस्त अप्रशस्त एम वे भेदो
सूत्रम्
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