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सूत्रम्
॥६८३॥
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जोवि दुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ नहुनेहिलेति, परं सव्वेवि हु ते जिणाणाएः ॥ १॥ जे चे, त्रण, एक अथवा वस्त्र रहित निभाव करे, जे बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी परस्पर निंदा करता नथी
तथा जिनकल्पिक, अथवा प्रतिमा धारण करेल, कोइ मुनि कदाचित् छ महिना सुधी पण पोताना कल्पमा भिक्षा न मेळवे, 8 तेवो उत्कृप्ट तप करवा छतां पोते रोज खानार क्रूरगडु जेवा मुनिने एम न कहे के हे भात खावा माटे दीक्षा लेनारा मुंड! ते
खावा माटेज मात्र दीक्षा लीधी छे ! [एवं कहीने अपमान न करे.] न तेथी आ प्रमाणे समत्व दृष्टिनी प्रज्ञावडे संसार भ्रमण रुप कषायने दूर करी समता धारण करीने ते मुनि संसार सागर तरेलो
छे तेज सर्व संगथी मुक्त छे, तेज सर्व सावध अनुष्ठानथी छुटेल जिनेश्वरे वर्णव्यो छे, पण बीजो नहिं. एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. & H०-हवे ते प्रमाणे जे संसार श्रेणीने त्यागी संसारसागर तरेलो मुक्त वरणव्यो तेवा उत्तम साधुने अरति पराभव करे के नहि?
उ-कर्मना अचित्य (विचित्र) सामर्थ्यथी परिभवे पण खरी! तेज कहे छे.विरयं भिक्खु रायंतं चिररासियं अरई तत्थ किं विधारए?, संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दावे असंदीण एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुटाणे जहा से दिया पोए एवंते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि (सू० १८७) धूताध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ ६-३ ॥
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