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आचा०
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सूत्रम् ॥४०२॥
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5. ओने जुदा जुदा दुःखोनी अवस्था जेमां थाय; ते "निकरण" अथवा "निकार" छे, अने तेज अशुभकर्म शरीर मन दुःख उत्पा
दक छे, ते कर्मने साधु न करे; एटले जेथी माणीओने पीडा थाय; तेवू कृत्य साधु न करे; (साधुए कोइ पण जातनो पापारंभ न ल करवो;) तेथी शुं थाय ते कहे छे.
आजे सावध वेपारनी निवृत्तिरूप-परिज्ञा छे, तेज तत्त्वथी प्रकर्षथी 'परिज्ञान' कहेवाय छे, पण शैलुभ ( ठगनी) माफक 8 मोक्ष फळ रहित ज्ञान नथी.
आ प्रमाणे ज्ञ परिज्ञा, तथा प्रत्याख्यान परिज्ञावडे प्राणीनो निकार (हिंसा) छोडवावडे साधुने मोक्षम छे, एटले कर्मो शान्त पामे छे, संपूर्ण जोडलां राग द्वेप विगेरेनां छे, ते वधां संसार झाडनां वीजरूप कर्म छे, तेनो क्षय थाय छे. ते जीवहिंसानी क्रिया
दूर करनारने थाय छे. र अने आ कर्मक्षयमां विघ्नरूप जीव हिंसार्नु मूळ आत्मामां विषयवासना, ममत्व छे, ते दूर करवा कहे छे.
जे ममाइ-यमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिदृपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावो विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिकमिजासिं तिबेमि ॥ नारई सहई वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्मा अविमेण वोरे. तम्हा वीरे न रजइ ॥१॥ (सू० ९८) संसारी जड वस्तुमां मारापणानी मति तेने जे साधु परिग्रहना कडवां फळने जाणे छे, ते छोडे छे. ते परिग्रह द्रव्यथी अने
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