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त्रीजो उद्देशो. आचा० हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:-बीजा उद्देशामां का केः-अविरतवादी ते परिग्रहवाळो छे, अने आ४
आ .सूत्रम् ४त्रीजा उद्देशामां तेथी उलटुं कहे छे. भाप्रमाणे संबन्धथी आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. ॥५७८॥
आवंती केयावंती, लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई महावी ॥५७८॥ पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुजोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं (सू० १५१)
आलोकमां जे कोइ परिग्रहवाळा विरत साधुओ छे, ते वधाए आ अल्प विगेरे द्रव्य छोडे; छते अपरिग्रहधारी मुनि वने छे, * अथवा छ जीवनीकायमां ममत्त्वभाव तजवाथी अपरिग्रहधारी थाय छे.
मा-ठीक. पण, अपरिग्रहभाव केवी रीते वने ? ते कहे छे. 'सोचा वईति' (वीजी विभक्तिना अर्थमा प्रथम विभक्ति छे, तेथी) वाणी ते आ तीर्थकरे कहेला आगमरूप-आज्ञाने सांभळीने मेधावी (मर्यादामां रहेलो) श्रुतज्ञान भणेलो हेयऊपादयने समजी तत्त्व ग्रहण करावानी प्रवृत्ति जाणनारो बने; तथा, पंडित ते गणधर आचार्य विगेरेनां विधि नियमरूप-वचनोने सांभळी सचित्त-अचित्त वस्तुनो जाण बनी तेना परिग्रहनो त्याग करी अपरिग्रही वने प्रा-ठीक तेम इशे; पण, निरावरण ज्ञान उत्पन्न थएला तीर्थकरोनो क्ये समये वाणीनो योग (उपदेश) थाय छे, के अमे सांभळीए? .
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