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आचा०
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__ नवमो उद्देशो. आठमो कहीने नवमो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अनेषणीय पिंडनो त्याग वताव्यो, अहीं ते पण बीजे प्रकारे तेज बतावे छे.
इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड्ढा भवंति, गाहावई वा जाव काम्मकरी वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइजे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संवुडा बंभयोरी उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए.वा पायए वा, से जं पुण इमं अम्हं अप्णो अटाए निट्टियं तं असणं ४ सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्टाए असणं वा ४ चेइस्सामो, पयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म तहप्पगारं असणं वा अफासुयं० ॥ (भू० ४९)
'इह' शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे, अथवा प्रज्ञापकना क्षेत्र आश्रयी छे. खलु शब्द वाक्यनो शोभा माटे छे.) प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशाओ छे, अर्थात गुरु-शिष्यने कहे छे, के-पुरुषोमां केटलाक एवा श्रद्धालुओ श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक 2 अन्य पुरुपो होय छे, ते गृहस्थ अथवा कर्म करी (काम करनारा) होय छे, तेमने मालीक कहे के, आ गाममां आ आवेला साधु
भगवंतो १८००० भेदे शीलवन पाळनारा छे, तथा पांच महाव्रत तथा छटुं रात्रिभोजन विरमणव्रत धारनारा, तथा पिंडविशुद्धि । विगेरे उतरगुणयुक्त इंद्रिय मनने दमन करवाथी संयत छे, तथा आस्नवद्वार (पापस्थान) रोकवाथी संवृत छे, नवविध 'ब्रह्मचर्य। र गुत्पि पाळवाथी ब्रह्मचारी छे, मैथुन (कुसंग) थी दूर छे, १८ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पाळनारा छे, आवा साधुओने आंधांकर्मी विगेरे,
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