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________________ सूत्रम् ३॥ आचा ते भिक्षु कोइ वखत एक चर (एकलो फरनारो) होय, अने ते आगळ-पाछळ संखडिन भोजन खाइने तथा शीखंड के द्ध विगेरे अति लोलुपीपणाधी रसनो स्वादीयो बनीने घणुं खाय, तो विशेष झाडा थाय, अथवा वमन थाय. अथवा अंजीरणधी ॥८८३॥ कोढ विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त जीव लेनारो आतंक शूळ विगेरे रोग थाय, माटे केवळी सर्वज्ञप्रभु कहें छे के ते संखडिनुं जमण कर्मोनु उपादान छे, ते आदान केवी रीते थाय छे, ते बतावे छे. आ संखडिना स्थानमां आ अपायो (पीडाओ) थाय छे, अथवा जीभनो स्वाद करी इंद्रियो उन्मत्त थतां दुर्गति गमन विगेरे परलोकना अपायो छे, [खलु शब्द वाग्यनी शोभा माटे छे] | ते भिक्षु गृहस्थ अथवा तेना घरनी स्त्रीओ साथे अथवा परिव्राजक (वावां) साथे अथवा बावीओ साथे कोई दिवस एक वाक्य | (एक चित्त थवा) थी प्रेमी बनीने तेभोनी साथे ते साधु लोलुपपणे कोइ पण जातनुं नसो चडावनारुपी' पण पीए, अने नसो चडतां रहेवान स्थान याचे, पण जो तेवो शीलरक्षणनो उपाश्रय न मळे तो ते संखडि नजीकनाज मकान (धर्मशाळा विगेरे) मां | गृहस्थ अथवा बावी विगेरे ज्यां उतर्या होय तेमनी साथे उतरीने एकमेकपणे वर्ते, त्यां नसो चडेलो होवाथी कांतो गृहस्थ पो ताने भूली जाय अथवा साधु पोताने साधुपणाथी भूले, अने तेथी आq चिंतवे, के हुँ गृहस्थज छु ! अथवा (इंद्रियो पुष्ट थयेल मा होवाथी) स्त्रीना शरीरमां मोहित थयेलो अथवा नपुंसक साथे कुचालथी साधुपणुं गुमावे, अथवा तेने उन्मच जोइ कोइ रखडती स्त्री अथवा नपुंसक तेनी पासे आवीने बोले के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! हुं तारीसाथे एकांतमा मळवा इच्छु छु, आराममा अAथवा उपाश्रयमा रात्रे अथवा संध्याकाळे ते साधुने इन्द्रियोथी परवश बनेलाने कहे के तमारे त्यां आवद्, अने तमारे अमारी इच्छाथी विपरीत न करवू, पण मारी साथे तमारे हमेशां अमुक स्थळमां आवg, आ प्रमाणे परवंश बनावीने गामनी सीममां अथवा
SR No.010803
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrabahu, Shilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages890
LanguagePrakrit, Sanskrit, Gujarati
ClassificationManuscript, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size40 MB
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