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णनारो होय; ते वेदवित् कहेवाय छे. तथा, दर्गतिमां पडता जीवने धारी राखनार, तथा स्वर्गमोक्ष अपावनार धर्मने जाणे ते धर्मआचा०
वित छे. ए प्रमाणे, बधां कर्मरुप-मळ, कलंकथी रहित, एवं योगीनुं सुख ब्रह्मचर्य छे, तेने जाणे ते, ब्रह्मवित् छे, अथवा, अढार
प्रकार, ब्रह्म छे. आ प्रमाणे, ज्ञान, वेद धर्म, अने ब्रह्मचर्य प्रकर्षथी (उत्कृष्टपणे) जेनाबडे ज्ञेय पदार्थो जणाय; ते प्रज्ञानो छे एटले, ॥४३८॥ IPमति विगेरे पहेला भागमां बतावेल ज्ञानवडे जीवलोक जेवे रुपे रह्यो छे तेने जाणे; अथवा जीवलोकने रहेवानं जे स्थान, जे क्षे18 त्रलोक छे, तेने पोते जाणे अर्थात् जे शब्दादि विषयोनो राग तजे; तेज, ज्ञानि यथावस्थित लोकनुं स्वरुप जाणे छे, अने तेवो
ज्ञानी प्रथम बतावेला गुणवाळो (एटले जे आत्मवान् ज्ञानवान वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् ) थोडा अथवा, समस्त प्रज्ञानवडे लोकोने से जाणे तेने मुनि कहेवो कारणके, जगतनी त्रणे काळनी अवस्थाने माने अथवा. जाणे तेने मुनिशास्त्रमा कह्यो छे.
धर्म ते चेतन. अने अचेतन द्रव्यना स्वभावरुप, अथवा श्रुतचारित्ररुप-धर्मने जाणे; ते धर्मवित् जाणवो.
रुजु (सरळ) शानदर्शन-चरित्र नामना मोक्षमार्गनां जे अनुष्टान छे, तेनाथी अकुटिल छे, अथवा यथार्थरीते पदार्थ- स्वरुप 12 जाणवाथी सरल छे अथवा बधी उपाधिथी शुद्ध ते अवक्र (सरल) छे आ प्रमाणे धर्म जाणनार रुजु मुनि होय तेने शुं लाभ मळे ते कहे छे.
आवट्ट एटले भाव आवर्त ते जन्म जरा मरण रोग शोकना दुःख आपवाना स्वभाववालो संसार छे. का छे के, रागद्वेष वशाविळं, मिथ्या दर्शन दुस्तरम् ॥ जन्मावतें जगत्क्षिप्तं, प्रसादाभ्राम्यते भृशम् ॥१॥ ___ रागद्वेषना वशथी विधायेल मिथ्यादर्शनना कारणे दुस्तर अने जन्मना आवर्तमां फेंकायलुं जगत् छे. तेमां प्रमादथी जीवो
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