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आचार
उमललावा
॥७००॥
'आमां शुं दोप छे! कारणके शरीर विना धर्म बनी शके नहीं; माटे धर्मना आधाररुप शरीरने यत्नाथी पाळ, जोइए' का छे के.
शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धर्मो, यथा बोजात्सदंकुरः॥१॥ PI धर्मथी जोडायलं शरीर प्रयत्नथी वचावg; कारणके जेम वीज होय, तो सारो अंकुरो थाय, तेम शरीर ( सारु ) होय, तो धर्म थाय छे, (त्यारे आचार्य ने शीखामण - आपे के हे भव्य !) तुं शा माटे एवं बोले छे ? -
सांभळ ! धर्म छे, ते घोर भयानक छे, कारण के वधा आश्रवोनो तेमां निरोध छे, अने तेथी ते दुरनुचर छे, एवं तीर्थकर विगेरेए उदीरित (कहेलं) छे, तेवा अध्यवसायवालो तुं वन, अने एवा उत्तम संयम अनुष्ठाननी अवगणना जे करे छे (णं वाक्यनी चोभा माटे छे) अने सावध अनुष्ठान करे, ते तीर्थकर गणधरना उपदेशथी बहार जइ स्वेच्छाथीं वर्ते छे.
प्र०-कोण एवो होय ? उ०-उपर बतावेलो अधर्मार्थी वाळ आरंभनो अर्थी बनीने प्राणीओनो घात करे, करावे हणनारने अनुमोदनारो धर्मनी अवगणना करनारो, तथा काम भोगमां खेद पामेलो (कामांध) विविध प्रकारे तर्द (हिंसा) करनारो (तर्द धातुनो अर्थ हिंसा छे) अथवा सयममा प्रतिकूल ते वितर्द छे. एवा स्वरुपवाळो वाळ साधु जिनेश्वरे कहेलो छे. एवं सुधर्मास्वामी पोताना शिष्योने कहे छे. के तुं मेधावी छे. माटे धर्मने जाण, बळी हवे पछीतुं पण हुं कहुं छु; ते बतावे छे.
किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ यपरिग्गरं वीरायमाणा समुहाए अविहिंसा सुवया दंता पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे .
RECECAD