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भरत द्वारा षट्खण्डविजय
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० ___ऋषभदेव-वंश रूपी समुद्र को चंद्र के समान आह्लादित करने वाले, साक्षात् मूर्तिमान न्याय श्री भरतनरेश ने पृथ्वी का यथार्थ रूप से पालन किया। उनकी रूप-संपत्ति के समक्ष लक्ष्मीदेवी दासी रूप थी। उनके चौसठ हजार रानियाँ थीं। जिस समय भरतनरेश इंद्र के साथ अर्धासन पर बैठते थे. उस समय अंतर को नहीं समझने वाले देव संशय में पड़ जाते थे।
जगत्प्रकाश सूर्य जैसे पूर्व में उदय होता है, वैसे ही अपने तेज से दूसरों के तेज को पराजित करने वाले तेजस्वी भरतराजा ने दिग्विजय करने के लिए पूर्वदिशा से प्रस्थान प्रारंभ किया; और वह वहां आ पहुँचा, जहां गंगा के संगम से मनोहर बना हुआ पूर्वीय समुद्रतट अपने कल्लोल रूपी करों से प्रवाह को उछालते हुए ऐसा लग रहा था, मानो धन उछाल रहा हो। वहां मागधतीर्थ के कुमारदेव का मन में स्मरण कर चक्रवर्ती ने अर्थसिद्धि के प्रथमद्वार रूप अट्ठमतप को अंगीकार किया। तदनंतर रथ में बैठकर महाभुजा वाले भरत चक्रवर्ती ने मेरु के समान विशाल समुद्र में प्रवेश किया। रथ को धुरी तक जल में खड़ा रखकर अपने दूत के समान अपने नाम से अंकित बाण को बारह योजन स्थित मागध की ओर भेजा। बाण मागध में गिरा। उसे देखते ही मागधपति देव भृकुटि चढ़ाकर अत्यंत क्रोधाविष्ट हो गया। लेकिन ज्यों ही नागकुमार ने बाण पर मंत्राक्षर के समान भरत चक्रवर्ती के नामाक्षरों को देखा; त्योंही उसका मन अत्यंत शांत हो गया। हो न हो, यह प्रथम चक्रवर्ती पैदा हुआ है; यों विचारकर वह मूर्तिमान विजय की तरह भरत के पास आया। वह अपने मस्तक के मणि एवं चिरकाल से उपार्जित तेज के समान बाण चक्रवर्ती के पास वापस ले आया और कहने लगा-'मैं आपका सेवक हूँ। पूर्वदिशा का पालक हूँ। अतः बतलाइए मैं आपका कौन-सा कार्य करूं।' इस प्रकार की विनति सुनकर महापराक्रमी भरत ने उसे जयस्तंभ के समान मागधाधिपति के रूप में स्वीकार किया। वहाँ से पूर्वी समुद्रतट से भरत-नरेश फिर एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी एवं एक पर्वत से दूसरे पर्वत को कंपित करते हुए चतुरंगिणी सेना के साथ दक्षिण-समुद्र पहुंचे। महाभुजबली भरत ने इस समुद्रतट पर सेना का पड़ाव डाला, तटवर्ती द्वीप में पिश्ते, काजू आदि वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं। अपने गुप्त तेज से दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी भरतेश घोड़े जुते हुए एक महारथ में आरूढ़ हुए। उसके बाद उछलते तरंग के समान ऊँचे घोडों से जुते हुए रथ में बैठकर उसी रथ को वह समुद्र में नाभि तक पानी में ले गये। फिर भरतेश ने बाण तैयार करके कान तक प्रत्यंचा खींचकर धनुर्वेद के ओंकार के समान धनुषटंकार किया। उसके बाद इंद्र के समान बलशाली भरतेश ने सोने के कुंडल के समान, कमलनाल के समान स्वनामांकित स्वर्णबाण धनुष पर चढ़ाया और वरदाम तीर्थ के स्वामी की ओर छोड़ा। वरदाम तीर्थ के स्वामी
को देखा और उसे ग्रहण किया। वह उसका उपाय जानने वाला था। अतः भेंट लेकर भरतेश के पास पहुंचा। भरताधिप से उसने हाथ जोड़कर कहा कि 'आप मेरे यहां पधारें, इससे मैं कृतार्थ हुआ। आप जैसे नाथ को पाकर अब मैं सनाथ बना।' इसके बाद उसे अपना अधीनस्थ राजा बनाकर, कार्य की कदर करने वाले भरतेश्वर सैन्य से पृथ्वीतल को कंपाते हुए पश्चिमी दिशा की ओर चल पड़े। पश्चिमी समुद्रतट पर पहुंचकर भरतनरेश ने भी प्रभासतीर्थ के स्वामी की ओर विद्युदंड के समान प्रज्वलित बाण फेंका। प्रभासपति ने उस बाण पर अंकित वाक्य-'यदि सुख से जीना चाहते हो तो मेरी आज्ञा का पालन करो और मेरा दंड (कर) भी दो;' अक्षर पढ़े। पढ़ते ही भरतराजा को प्रसन्न करने के लिए। वह आश्चर्यकारी प्रचुर भेट के साथ उस बाण को लेकर भरतेश के समीप आया। अपने चिरकाल में उपार्जित यश एवं हिम के समान उज्ज्वल मनोहर हार और मणियों में श्रेष्ठ कौस्तुभ मणि तथा अद्वितीय मणिरत्न नरशिरोमणि भरत को अर्पण किये और कौस्तुभरत्न व सुवर्ण आदि से देदीप्यमान, मूर्तिमान तेज की तरह मुकुट अर्पण कर अपनी निष्कपटभक्ति से उसने भरत को प्रसन्न किया। वहां से भरतनरेश ने उत्तरद्वार की देहली के समान सिंधु नदी की ओर प्रस्थान किया। वहां सिंधुदेवी के मंदिर के पास राजा ने सेना की छावनी डाली।
सिंधदेवी को आह्वान करने के उद्देश्य से उन्होंने अदम तप किया। सिंध देवी ने अपना आसन कंपायमान होने से जाना कि कोई चक्रवर्ती आया है। अतः वह दिव्य भेंट लेकर आयी। और भरत महाराजा की पूजा की। भरतनरेश ने उसका स्वीकार कर उसे विदा दी और तप का पारणा किया। फिर आठ दिन तक उसका विजय-महोत्सव किया। उसके बाद चक्र का अनुसरण करते हुए वे उत्तर पूर्व की ईशान विदिशा में जाते हुए भरतक्षेत्र के दो विभागों को जोड़ने वाले वैताढ्य पर्वत के निकट पहुंचे। वहाँ भरतेश ने दक्षिण-विभाग की तलहटी में सेना का पड़ाव डाला। यहाँ भी
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