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क्रोध का स्वरूप, दुष्परिणाम एवं उसे जीतने का उपाय
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ११ के छोटे-छोटे पत्तों से प्राप्त समरस को अथवा चिरकाल से आत्मा में उपार्जित शमामृत को पलाश के बड़े पत्तो के समान क्रोध नीचे गिरा देता है। द्वैपायनऋषि ने क्रोधाग्नि पैदा होने से यादवकुल को और प्रजा सहित द्वारिका नगरी को जलाकर भस्म कर दिया था। क्रोध करने से कभी-कभी जो कार्य की सिद्धि होती मालूम होती है, वह क्रोध के कारण से नहीं होती, उसे पूर्वजन्म में उपार्जित प्रबल पुण्यकर्म का फल समझना चाहिए। अपने दोनों जन्मों को बिगाड़ने वाले, अपने और दसरे के अर्थ का नाश करने वाले क्रोध रूपी जल को जो अपने शरीर में धारण करता है उसे धिक्कार है। प्रत्यक्ष देख लो, क्रोधान्धता से निर्दय बना आत्मा पिता, माता, गुरु, मित्र, सगे भाई, पत्नी और अपना विनाश कर डालता है ।।१०।।
क्रोध का स्वरूप बताकर उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उपदेश देते हैं।३३७। क्रोधवतेस्तदह्राय, शमनाय शुभात्मभिः । श्रयणीया क्षमैकैव, संयमारामसारणिः ॥११।। अर्थ :- उत्तम आत्मा को क्रोध रूपी अग्नि को तत्काल शांत करने के लिए एकमात्र क्षमा का ही आश्रय लेना
चाहिए। क्षमा ही क्रोधाग्नि को शांत कर सकती है। क्षमा संयम रूपी उद्यान को हराभरा बनाने के लिए
क्यारी है ।।११।। व्याख्या :- प्रारंभ में ही क्रोध को न रोका जाये तो बढ़ने के बाद दावानल की तरह उसे रोकना अशक्य है। कहा है कि-थोड़ा-सा ऋण, जरा-सा भी घाव, थोड़ी-सी अग्नि और थोड़े-से भी कषायों का जरा भी विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि थोड़े को भी विराट् बनते (बढ़ते) देर नहीं लगती। (आ. नि. गा. १२०) इसलिए क्रोध आते ही तत्काल क्षमा का आश्रय लेना चाहिए। इस जगत् में क्रोध को उपशांत करने के लिए क्षमा के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। क्रोध का फल वैर का निमित्त होने से उलटे वह क्रोध को बढ़ाता है, शांति नहीं दे सकता। इसलिए क्षमा ही क्रोध को | शांत करने वाली है। वह क्षमा कैसी है? इसके उत्तर में कहते हैं-क्षमा संयम रूपी उद्यान की क्यारी के समान है। क्षमा से नये-नये संयम-स्थान और अध्यवसाय-स्थान रूप वृक्षों को रोपा जाता है, उसकी वृद्धि की जाती है। उद्यान में अनेक प्रकार के वृक्ष बोये जाते हैं, उसमें पानी की क्यारी बनाने से वृक्षों के पुष्प, फल, पत्ते आदि बढ़ते हैं। क्षमा प्रशांत-वादिता रूप चित्त की परिणति है। उसे क्यारी का रूप देने से नये-नये प्रशम-परिणाम उत्पन्न होते हैं। इस विषय के श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं
आमतौर पर अपकारी मनुष्यों पर क्रोध का रोकना अशक्य है, इसके विपरीत अपनी सहनशक्ति के प्रभाव से अथवा किसी प्रकार की भावना से क्रोध रोका जा सकता है। जो अपने पाप को स्वीकार करके मुझे पीड़ा देना चाहता है; वह बेचारा अपने कर्मों से ही मारा गया है, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो उस मनुष्य पर क्रोध करेगा? कोई नहीं! 'मैं | अपकारी पर क्रोध करूं' इस प्रकार के परिणाम यदि तेरे मन में जागृत होते हैं, तो फिर तूं दुःख के कारण रूप अपने कर्मों पर क्रोध क्यों नहीं करता? कुत्ता ढेला फेंकने वाले को न काटकर ढेले को काटने जाता है, जब कि सिंह बाण की ओर दृष्टि किये बिना ही बाण फेंकने वाले को पकड़ने जाता है। आत्मार्थी क्रूरकर्मों से प्रेरित व्यक्ति पर क्रोध नहीं करता; अपितु अपने कर्मों पर ही क्रोध करता है, जब कि साधारण मनुष्य कर्मों पर क्रोध करने की अपेक्षा दूसरे (निमित्त) पर क्रोध करता है। कुत्ते के समान दूसरों को भौंकने या बोलने से क्या लाभ? अपने कर्मों को कोस, उन्हें ही डांट। सुनते हैं कि-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कों को क्षय करने की इच्छा से चलकर म्लेच्छदेश में गये थे, तो फिर अनायास प्राप्त हुई क्षमा क्यों नहीं धारण करना चाहते? तीन जगत् का प्रलय अथवा रक्षण करने में समर्थ प्रभु ने यदि क्षमा रखी थी तो फिर केले के समान अल्पसत्व वाले तेरे सरीखे व्यक्ति क्षमा क्यों नहीं रख सकते? इस प्रकार अनायास प्राप्त पुण्य क्यों नहीं कमा लेते, ताकि कोई भी तुम्हें पीड़ा न दे सके। अब तो अपने प्रमाद की निंदा करते हुए क्षमा को स्वीकार करो। क्रोध में अंधे बने हुए मुनि में और क्रोध करने वाले चांडाल में कोई अंतर नहीं है। इस कारण क्रोध का त्यागकर उज्ज्वल बुद्धि की स्थली रूपी क्षमा का सेवन करना चाहिए। एक ओर क्रोध करने वाले महातपस्वी महामुनि थे, दूसरी ओर केवल नवकारसी का पच्चक्खाण करते थे; क्रोधरहित कूरगड्डुक मुनि। परंतु देवताओं ने महामुनि को छोड़कर कूरगड्डू मुनि को वंदन किया था। शास्त्रदृष्टि से कलुषित मर्मस्पर्शी वचनों को सुनकर
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