Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 448
________________ ।। ॐ अर्हते नमः ।। ७. सप्तम प्रकाश . ध्यान-साधना के अभिलाषी के लिए क्रम बताते हैं || ७४४ | ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं, ध्याता ध्येयं तथा फलम् । सिध्यन्ति न हि सामग्रीं विना कार्याणि कर्हिचित् ॥ १॥ अर्थ :- ध्यान करना चाहने वाले को ध्याता, ध्येय तथा फल जानना चाहिए। क्योंकि सामग्री के बिना कार्य की सिद्धि कदापि नहीं होती ॥१॥ पहले ध्यान का लक्षण छह श्लोकों द्वारा बताते हैं - ।७४५। अमुञ्चन् प्राणनाशेऽपि, संयमैकधुरीणताम् । परमप्यात्मवत् पश्यन्, स्वस्वरूपापरिच्युतः ॥ २॥ |७४६ । उपतापमसम्प्राप्तः, शीतवातातपादिभिः । पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम् ॥३॥ ।७४७। रागादिभिरनाक्रान्तं क्रोधादिभिरदूषितम् । आत्मारामं मनः कुर्वन्, निर्लेपः सर्वकर्मसु ॥४॥ ।७४८। विरतः कामभोगेभ्यः, स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगहृदनिर्मग्नः सर्वत्र समतां श्रयन् ॥५॥ ।७४९। नरेन्द्रे वा दरिद्रे वा, तुल्यकल्याणकामनः । अमात्रकरुणापात्रं, भव - सौख्य- पराङ्मुखः ||६|| ।७५०। सुमेरुरिव निष्प्रकम्पः, शशीवानन्ददायकः । समीर इव निःसङ्गः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥७॥ अर्थ :जो प्राणों के नाश का समय उपस्थित होने पर भी संयम धुरा के भार का त्याग नहीं करता; दूसरे जीवों को आत्मवत् देखता है, वह अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता; अपने लक्ष्य पर अटल रहता है ।।२।। जो सर्दी, गर्मी और वायु में खिन्न नहीं होता; अजर-अमर करने वाले, योगामृत - रसायन का पिपासु है ||३|| राग-द्वेष-मोह आदि दोष जिस पर हावी नहीं है, क्रोध आदि कषायों से जो अदूषित है, मन को जो आत्माराम में रमण कराता है, और समस्त कार्यों में अलिप्त रहता है ||४|| कामभोगों से विरक्त रहता है, अपने शरीर के प्रति भी निःस्पृह रहता है, संवेग रूपी सरोवर में भलीभांति डूबा रहता है, शत्रु और मित्र में, सोने और पाषाण में, निंदा और स्तुति में, मान एवं अपमान आदि में सर्वत्र समभाव रखता है ||५॥ राजा और रंक दोनों पर एकसरीखी कल्याण-कामना रखता है। सर्वजीवों के प्रति जो करुणा-शील है, सांसारिक सुखों से विमुख है ||६|| परीषह और उपसर्ग आने पर भी सुमेरु की तरह निष्कम्प रहता है, जो चंद्रमा के समान आनंददायी है और वायु की भांति निःसंग - (अनासक्त, अप्रतिबद्धविहारी) है; वही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध ध्याता ध्यान करने योग्य हो सकता है ||७| अब भेदसहित ध्येय का स्वरूप बताते हैं | | ७५१ । पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं, रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥८॥ बुद्धिमान पुरुषों ने ध्यान का आलंबन स्वरूप ध्येय चार प्रकार का माना है - १. पिण्डस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत ॥८॥ अर्थ : यहां पिंड का अर्थ शरीर है। उसका आलंबन लेकर टिकाया जाने वाला ध्यान पिंडस्थ ध्यान है। ध्येय को धारणा के भेद से कहते हैं 426

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