Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ ।। ॐ अर्हते नमः ।। ९. नवम प्रकाश __अब सात श्लोकों द्वारा रूपस्थध्यान का स्वरूप कहते हैं।८५३। मोक्ष-श्रीसम्मुखीनस्य, विध्वस्ताखिलकर्मणः । चतुर्मुखस्य निःशेष-भुवनाभयदायिनः ॥१॥ ।८५४। इन्दुमण्डलसङ्काशच्छत्र-त्रितयशालिनः । लसद्भामण्डलाभोगविडम्बितविवस्वतः ॥२॥ ।८५५। दिव्य-दुन्दुभिनिर्घोष-गीत-साम्राज्य-संपदः । रणविरेफझङ्कार-मुखराशोकशोभिनः ॥३॥ ।८५६। सिंहासन-निषण्णस्य, वीज्यमानस्य चामरैः । सुरासुरशिरोरत्नदीप्रपादनखद्युतेः ॥४॥ ।८५७। दिव्यपुष्पोत्कराकीर्णासङ्कीर्णपरिषद्भुवः । उत्कन्धरैर्मृगकुलैः, पीयमानकलध्वनेः ॥५॥ ।८५८। शान्तवैरेभसिंहादि-समुपासितसन्निधेः । प्रभोः समवसरणस्थितस्य परमेष्ठिनः ॥६॥ ।८५९। सर्वातिशययुक्तस्य, केवलज्ञानभास्वतः । अर्हतो रूपमालम्ब्य, ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥७॥ अर्थ :- जो योगी मोक्षलक्ष्मी के संमुख पहुंच चुके हैं, जिन्होंने समग्र कर्मों का विनाश कर दिया है, उपदेश देते समय चौमुखी हैं; समग्र लोक के प्राणिमात्र को जो अभयदान देते हैं और चंद्रमंडल के समान तीन उज्ज्वल छत्रों से सुशोभित हैं, सूर्यमंडल की प्रभा को मात करने वाला भामंडल जिनके चारों और देदीप्यमान है, जहाँ दिव्यदुंदुभि के आघोष हो रहे हैं; गीतगान की साम्राज्य-संपदा हैं। गुंजार करते हुए भ्रमरों की झंकार से गूंजित अशोकवृक्ष से सुशोभित हैं, सिंहासन पर विराजमान हैं, जिनके दोनों और चामर दुलाये जा रहे हैं, वंदन करते हुए सुरों और असुरों के मुकट के रत्नों की कांति से जिनके चरणों के नख की युति चमक रही हैं, दिव्यपुष्यों के समूह से समवसरण की विशालभमि भी खचाखच भरी हुई है, गर्दन ऊपर उठाकर मृगादि पशुओं के झुंड जिनका मधुर उपदेश पान करे रहे हैं; सिंह, हाथी, सर्प, नकुल आदि जन्म से वैर वाले जीव अपना वैर भूलकर जिनके पास बैठ गये हैं, ऐसे समवसरण में स्थित सर्व-अतिशयों से युक्त, केवलज्ञान से सुशोभित परमेष्ठी अरिहंत भगवान् के स्वरूप का अवलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है; वह रूपस्थध्यान कहलाता है।।१-७।। रूपस्थध्यान का दूसरा भेद तीन श्लोकों द्वारा कहते हैं१८६०। राग-द्वेष-महामोह-विकारैरकलङ्कितम् । शान्तं कान्तं मनोहारि, सर्वलक्षणलक्षितम् ॥८॥ ।८६१। तीर्थिकैरपरिज्ञात-योगमुद्रामनोरमम् । अक्ष्णोरमन्दमानन्दनिःस्यन्दं दददद्भुतम् ॥९॥ ।८६२। जिनेन्द्रप्रतिमारूपम्, अपि निर्मलमानसः । निनिमेषदृशां ध्यायन्, रूपस्थध्यानवान् भवेत् ॥१०॥ अर्थ :- राग-द्वेष-महामोह-अज्ञान आदि विकारों से रहित, शांत, कांत, मनोहर आदि समस्त प्रशांत लक्षणों से युक्त, अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अज्ञात योग-ध्यानमुद्रा को धारण करने से मनोरम तथा आंखों से प्रबल अद्भुत आनंद झर रहा है, ऐसी स्थिरता से युक्त श्रीजिनेश्वरदेव की प्रतिमा के रूप का निर्मल चित्त से आंख बंद किये बिना स्थिर निगाह से ध्यान करने वाला योगी रूपस्थध्यानी कहलाता है।।८-१०॥ फिर||८६३। योगी चाभ्यासयोगेन, तन्मयत्वमुपागतः । सर्वज्ञीभूतमात्मानम्, अवलोकयति स्फुटम् ॥११॥ ||८६४। सर्वज्ञो भगवान् योऽयम्, अहमेवास्ति स ध्रुवम् । एवं तन्मयतां यातः, सर्ववेदीति मन्यते ॥१२॥ 438

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494