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अनुभवित योग का वर्णन
योगशास्त्र द्वादशम प्रकाश श्लोक ४३ से ५२
बिखरा हुआ है, जलकर भस्म हो गया है, उड़ गया है पिघल गया है और अपना शरीर अपना नहीं (असत्कल्प ) है ||४२ ॥
। ९९६ । समदैरिन्द्रियभुजगै रहिते विमनस्क - नवसुधाकुण्डे । मग्नोऽनुभवति योगी परामृतास्वादमसमानम्।।४३।। अर्थ :- मदोन्मत्त इंद्रिय रूपी सर्पों से मुक्त होकर योगी उन्मनभाव रूप नवीन अमृतकुण्ड में मग्न होकर अनुपम और उत्कृष्ट तत्त्वामृत के स्वाद का अनुभव करता है ||४३||
||९९७ रेचक - पूरक- कुंभक - करणाभ्यासक्रमं विनाऽपि खलु । स्वयमेव नश्यति मरुद्, विमनस्के सत्ययत्नेन||४४|| अर्थ :- अमनस्कता की प्राप्ति हो जाने पर रेचक, पूरक, कुंभक और आसनों के अभ्यास क्रम के बिना भी अनायास ही वायु स्वयमेव नष्ट हो जाती है ।। ४४ ।।
| । ९९८ । चिरमाहितप्रयत्नैरपि धर्तुं यो हि शक्यते नैव । सत्यमनस्के तिष्ठति, स समीरस्तत्क्षणादेव ||४५|| जिस वायु को चिरकाल तक अनेक प्रयत्नों से भी धारण नहीं किया जा सकता; उसी को अमनस्क होने पर योगी तत्काल एक जगह स्थिर कर देता है ।। ४५ ।।
अर्थ
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||९९९| जातेऽभ्यासे स्थिरताम्, उदयति विमले च निष्कले तत्त्वे । मुक्त इव भाति योगी समूलमुन्मूलितश्वासः ॥४६॥
अर्थ :- इस उन्मनीभाव के अभ्यास में स्थिरता होने पर तथा निर्मल (कर्मजाल-रहित) अखंड तत्त्वज्ञान के उदय होने पर श्वासोच्छ्वास का समूल उन्मूलन करके योगी मुक्त पुरुष के समान प्रतीत होता है ।। ४६ ।। तथा||१०००| यो जाग्रदवस्थायां, स्वस्थः सुप्त इव तिष्ठति लयस्थ: । श्वासोच्छ्वास - विहीनः स हीयते न खलु मुक्तिजुषः || ४७|| अर्थ :- जाग्रत अवस्था में स्व-स्वरूप (आत्म-स्वरूप) में स्थित (स्वस्थ ) योगी लय नामक ध्यान में सोये हुए व्यक्ति के समान स्थिर रहता है। श्वासोच्छ्वास-रहित लयावस्था में वह योगी मुक्त आत्मा से जरा भी हीन नहीं होता; बल्कि सिद्ध के समान ही होता है ।। ४७ ।।
| । १००१ | जागरणस्वप्नजुषो, जगतीतलवर्तिनः सदा लोकाः । तत्त्वविदो लयमग्ना, नो जाग्रति शेरते नापि ॥४८॥ अर्थ :- इस पृथ्वीतल पर रहने वाले जीव सदा जागरण और स्वप्नदशा का अनुभव करते हैं, परंतु लय में मग्न तत्त्वज्ञानी न जागते हैं, और न सोते हैं ।।४८ ।।
| । १००२ | भवति खलु शून्यभावः, स्वप्ने विषयग्रहश्च जागरणे । एतद् द्वितयमतीत्यानन्दमयमवस्थितं तत्त्वम्॥ ४९ ॥ अर्थ :- तथा स्वप्नदशा में निश्चय ही शून्यभाव होता है और जागृत अवस्था में योगी इंद्रियों के विषयों को ग्रहण करता है, किन्तु तत्त्व की प्राप्ति होने के बाद इन दोनों अवस्थाओं से परे होकर वह आनंदमय तत्त्व=लय में स्थित रहता है ।। ४९ ।।
उपालम्भ देते हुए समस्त उपदेशों का सार बताते हैं
| | २००३ | कर्माण्यपि दुःखकृते निष्कर्मत्वं सुखाय विदितं तु । न ततः प्रयतेत कथं, निष्कर्मत्वे सुलभमोक्षे? ॥५०॥ अर्थ :- कर्म दुःख के लिए हैं, अर्थात् दुःख का कारण अपने आप किये हुए कर्म हैं और कर्मरहित होना सुख के लिए है; यदि तुम इस तत्त्व को जानते हो तो सुलभ मोक्षमार्ग के लिए निष्कर्मत्व-प्राप्ति का प्रयत्न क्यों नहीं करते? ॥५०॥
||१००४ । मोक्षोऽस्तु माऽस्तु यदि वा परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु । यस्मिन् निखिलसुखानि, प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव॥५१॥ मोक्ष हो या न हो; परंतु ध्यान से प्राप्त होने वाला परमानंद तो यहाँ प्रत्यक्ष अनुभूत होता है। इस परमानंद प्राप्त होने पर जगत् के सभी सुख तृण के समान तुच्छ प्रतीत होते हैं ।। ५१||
अर्थ :
इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए बताते हैं
। १००५। मधु न मधुरं नैताः शोतास्त्विषस्तुहिनद्युते । अमृतममृतं नामैवास्याः फले तु मुधा सुधा । तदलममुना संरम्भेण प्रसीद सखे! मनः फलमविकलं त्वय्येवैतत् प्रसादमुपेयुषि ॥५२॥
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