Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 493
________________ यत्कृतं सुकृतं किञ्चिद् रत्नत्रितयगोचरम् । तत् सर्वमनुमन्येऽहं मार्ग मात्रानुसार्यपि ॥ रत्नत्रयी के अंश का भी आचरण सत्कर्म है। सन्मार्ग का अत्यल्प भी अनुसरणभी सत्कर्म है। मार्गानुसरण शुभाचरण जो बन पड़ा मुझ से विभो । अनुमोदना सब की करूं यह भी सरस शुभ कर्म है। जो जहाँ होंतउं सो तहाँ होंतर, सत्तु वि मित्तु वि किहे वि हु आवउ । जहिं विहु तहिं विहु मग्गे लीणा, एक्कए दिट्ठिहि दोग्नि वि जोअहु ॥ - द्वयाश्रीयम् अपभ्रंश: तुम जहां हो वहाँ रहो, तुम जिस मत पंथ में हो वहाँ रहो, तुम्हारे पास तुमारा हित करने तुम्हारा मित्र आये या अहित करने शत्रु आये उन दोनों पर समदृष्टि रखना । 6 नात्मा प्रेरयति मनो, न मनः प्रेरयति यर्हि करणानि । उभयभ्रष्टं तर्हि, स्वयमेव विनाशमाप्नोति ॥ - योगशास्त्रम् बिचारा मन ! आत्मा उसे प्रेरित न करे, इंद्रियाँ उसका कहना न माने, तब उभय भ्रष्ट अपने आप मन विनाश को प्राप्त हो जाता है।

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