Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 483
________________ अनुभवित योग का वर्णन - उपसंहार योगशास्त्र द्वादशम प्रकाश श्लोक ५५ से ५२ अर्थ :- आगमों और अन्य शास्त्रों से तथा इनकी यथार्थ सुंदर व्याख्या करने वाले गीतार्थ सुगुरु के मुखारविंद से तथा मेरे अपने अनुभव से योग का जो अल्प रहस्य जानने में आया, वह योगरुचि वाले पंडितों की परिषद् (सभा) के चित्त को चमत्कृत करने वाला होने से श्री चौलुक्यवंशीय कुमारपाल राजा की अत्यंत प्रार्थना से आचार्यश्री हेमचंद्र ने योगशास्त्र नामक ग्रंथ वाणी के मार्ग से प्रस्तुत किया है।।५।। व्याख्या :- श्रीकुमारपाल महाराजा को योग की उपासना अतिप्रिय थी। उन्होंने योगविषयक अन्य शास्त्र भी देखे थे, इसलिए पूर्वरचित योगशास्त्र से विलक्षण (अद्भुत) योगशास्त्र सुनने की उन्हें अभिलाषा थी और प्रार्थना करने पर वचन के अगोचर होने पर भी योग का सारभूत 'अध्यात्म-उपनिषद्' नामक यह ग्रंथ रचकर आचार्य श्रीमद्हेमचंद्रसूरीश्वरजी ने वाणी के मार्ग से लिपिबद्ध करके इस योगशास्त्र को प्रस्तुत किया है ।।५।। इति शुभम्। अब इस वृत्ति (व्याख्या) के अंत में प्रशस्ति रूप में दो श्लोक प्रस्तुत करते हैं श्री चौलुक्यक्षितिपतिकृत-प्रार्थनाप्रेरितोऽहं, तत्त्वज्ञानामृतजलनिधेर्योगशास्त्रस्य वृत्तिम् । स्वोपज्ञस्य व्यरचयमिमां तावदेषा च नन्याद्, यावज्जैनप्रवचनवती भूर्भुवःस्वस्रयीयम् ॥१॥ अर्थ :- स्वोपज्ञ व्याख्या का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- 'चौलुक्य वंश में जन्म लेने वाले कुमारपाल राजा की प्रार्थना से प्रेरित होकर मैंने तत्त्वज्ञानामृत के समुद्र समान स्वयं रचित विवरण सहित योगशास्त्र की इस वृत्ति (विवेचनयुक्त टीका) की रचना की है, जब तक स्वर्ग, मृत्यु और पाताल रूप तीनों लोकों में जैन-प्रवचनमय आगम रहें, तब तक इस वृत्तिसहित यह ग्रंथ सदा समृद्ध रहे। सम्पापि योगशास्त्रात्, तद्विवृतेश्चापि यन्मया सुकृतम् । तेन जिन-बोधिलाभ-प्रणयी भव्यो जनो भवतात् ॥२॥ ___ अर्थ :- इस योगशास्त्र और इसकी विवृति (व्याख्या) की रचना से मैंने जो कोई भी सुकृत (पुण्य) उपार्जित किया हो; उससे भव्य जीव जिन-बोधिलाभ के प्रणयी-प्रेमी बनें, यही शुभभावना है। ।। इति श्री परमार्हत श्री कुमारपालभूपालशुश्रूषिते आचार्य श्रीहेमचन्द्रविरचितेऽध्यात्मोपनिषल्लाम्नि संजातपट्टबन्धे श्रीयोगशाचे स्वोपशं द्वादशप्रकाश विवरणम् ॥ . ॥ इस प्रकार परमार्हत् श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्राचार्यसूरीश्वर रचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशास का खोपज्ञायियरणसहित द्वादशन प्रकाश संपूर्ण हुआ। ॥ इति योगशालाम् सम्पूर्णम् ।। 462

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