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अनुभवित योग का वर्णन
योगशास्त्र द्वादशम प्रकाश श्लोक २६ से ३५ भी और मन की वृत्ति न रोकता हुआ भी उदासीनता (निर्ममत्वभाव) से युक्त, नित्य विषयासक्ति-रहित तथा बाह्य और आंतरिक समस्त चिंताओं एवं चेष्टाओं से रहित योगी तन्मयभाव बनकर अत्यंत
उन्मनीभाव को प्राप्त करता है ।।२२-२५।। अब इंद्रियों को नहीं रोकने का प्रयोजन बताते हैं।।९७९। गृह्णन्ति ग्राह्याणि स्वानि स्वानीन्द्रियाणि नो रुध्यात् । न खलु प्रवर्तयेद् वा, प्रकाशते तत्त्वमचिरेण ॥२६।। अर्थ :- इंद्रियाँ अपने-अपने ग्राह्य विषयों को ग्रहण करती हैं। उन्हें न तो रोके और न उन्हें विषय में प्रवृत्त करे।
ऐसा करने से अल्पकाल में ही तत्त्वज्ञान प्रकाशित हो जाता है ॥२६॥ हमने वीतरागस्तोत्र में कहा है-'प्रभो! आपने इंद्रियों को रोकी नहीं है और न ही उन्हें स्वच्छंद छोड़ी हैं; परंतु |आपने उदासीनभाव से इंद्रियों पर विजय पाई है' ।।२६।।
मन पर विजय किस प्रकार पा सकते हैं, यह दो श्लोकों द्वारा कहते हैं||९८०। चेतोऽपि यत्र यत्र, प्रवर्तते नो ततस्ततो वार्यम् । अधिकीभवति हि वारितम्, अवारितं शान्तिमुपयाति ॥२७॥ ।९८१। मत्तो हस्ती यत्नात् निवार्यमाणोऽधिकीभवति यद्वत् । अनिवारितस्तु कामान्, लब्ध्वा शाम्यति मनस्तद्वत् ।।२८।। अर्थ :- मन भी जिस-जिस विषय में प्रवृत्ति करता हो, उससे उसे बलात् नहीं रोकना चाहिए; क्योंकि बलात्
रोका गया मन उस और अधिक दौड़ने लगता है, और नहीं रोकने से वह शांत हो जाता है। जैसे मदोन्मत . हाथी को प्रयत्नपूर्वक रोकने से वह अधिक उन्मत्त हो जाता है और उसे न रोका जाय तो वह अपने इष्ट
विषयों को प्राप्त कर शांत हो जाता है। इस प्रकार मन भी उसी तरह की विषय-प्राप्ति से शांत हो जाता
है ॥२७-२८॥ मन के स्थिर होने का उपाय दो श्लोकों द्वारा कहते हैं१९८२। यहि यथा यत्र यतः, स्थिरीभवति योगिनश्चलंचेतः । तर्हि तथा तत्र ततः, कथञ्चिदपि चालयेन्नैव।।२९॥ ।९८३। अनया युक्तयाऽभ्यासं विदधानस्यातिलोलमपि चेतः । अगुल्यग्रस्थापितदण्ड इव स्थैर्यमाश्रयति।।३०॥ __ अर्थ :- जब, जिस प्रकार, जिस स्थान में और जिससे योगी का चंचल चित्त निश्चल रहे; तब, उसी प्रकार, उसी
जगह और निमित्त से उसे तनिक भी चलायमान नहीं करना चाहिए। इस युक्ति से मनोनिरोध का अभ्यास करने से अतिचंचल मन भी अंगुली के अग्रभाग पर स्थापित किये हुए दंड के समान स्थिर हो जाता
है ॥२९-३०॥ अब दो श्लोकों से इंद्रियजय के उपाय बताते हैं।९८४। निःसृत्यादौ दृष्टिः सङ्लीना यत्र कुत्रचित् स्थाने । तत्रासाद्य स्थैर्य शनैः शनैर्विलयमाप्नोति ॥३१॥ ।९८५। सर्वत्रापि प्रसृता, प्रत्यग्भूता शनैः शनैदृष्टिः । परतत्त्वामलमुकुरे, निरीक्षते ह्यात्मनाऽऽत्मानम् ।।३२।। अर्थ :- सर्वप्रथम दृष्टि बाहर निकलकर किसी भी स्थान में संलीन हो जाती है; फिर वहाँ स्थिरता प्राप्त करके
धीरे-धीरे वहाँ से विलयन हो जाती है। अर्थात् पीछे हट जाती है। इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई और वहाँ
से धीरे-धीरे हटी हुई दृष्टि परमतत्त्व रूप स्वच्छ दर्पण में स्थिर होकर आत्मा को देखती है।।३१-३२।। अब तीन श्लोकों द्वारा मनोविजय की विधि कहते हैं।९८६।औदासीन्यनिमग्नः, प्रयत्नपरिवर्जितः सततमात्मा । भावितपरमानन्दः, क्वचिदपि न मनो नियोजयति।।३३।। ।९८७।करणानि नाधितिष्ठन्त्युपेक्षितं चित्तमात्मना जातु । ग्राह्ये ततो निज-निजे, करणान्यपि न प्रवर्तन्ते ॥३४॥ ।९८८। नात्मा प्रेरयति मनो, न मनः प्रेरयति यहि करणानि । उभयभ्रष्टं तर्हि, स्वयमेव विनाशमाप्नोति ॥३५॥ अर्थ :- निरंतर उदासीनभाव में तल्लीन बना हुआ सर्वप्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानंददशा की भावना
करने वाला योगी मन को कहीं भी नहीं लगाता। इस प्रकार आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तब वह इंद्रियों का आश्रय नहीं करता। अर्थात् तब मन इंद्रियों को विषयों में प्रेरित नहीं करता। इंद्रियाँ भी
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