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अनुभवित योग का वर्णन
योगशास्त्र द्वादशम प्रकाश श्लोक ७ से १४ ||९६०। आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समाधिष्ठायको, भवत्यन्तरात्मा तु।।७।। ।९६१। चिद् रूपानन्दमयो, निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । अत्यक्षोऽनन्तगुणः, परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः ॥८॥ अर्थ :- शरीर.धन, परिवार, स्त्री-पत्रादि को आत्मबद्धि (ममता की दष्टि) से ग्रहण करने वाला बहिरात्मा
कहलाता है। परंतु, शरीर तो मेरे रहने का स्थान (घर) है, मैं उसमें रहने वाला स्वामी हूं। यह शरीर तो रहने के लिए किराये का घर है। इस प्रकार पुद्गल-स्वरूप सुख दुःख के संयोग-वियोग में हर्षशोक नहीं करने वाला अंतरात्मा कहलाता है। सत्ता से चिदानंदमय (केवलज्ञान स्वरूप आनंदमय) समग्र बाह्य उपाधि से रहित, स्फटिक के सदृश निर्मल, इंद्रिय आदि से अगोचर और अनंतगुणों से युक्त आत्मा
को ज्ञानियों ने परमात्मा कहा है ॥७-८|| बहिरात्मा और अंतरात्मा के भेदज्ञान से जो लाभ होता है, उसे कहते हैं।९६२। पृथगात्मानं कायात् पृथक् च विद्यात् सदात्मनः कायम् । उभयोर्भेदज्ञाताऽऽत्मनिश्चये न स्खलेद् योगी ॥९॥ अर्थ :- आत्मा को शरीर से भिन्न तथा शरीर को सदा आत्मा से भिन्न जानना चाहिए ।।९।।इन दोनों के भेद का
ज्ञाता योगी आत्म स्वरूप के निश्चय करने में विचलित नहीं होतावह इस प्रकार है|१९६३। अन्तःपिहितज्योतिः, संतुष्यत्यात्मनोऽन्यतो मूढः । तुष्यत्यात्मन्येव हि बहिर्निवृत्तभ्रमो ज्ञानी ॥१०॥ अर्थ :- जिसकी आत्मज्योति कर्मों से ढक गई है, वह मूढ़ जीव आत्मा से भिन्न पुद्गलों (पदार्थों) में संतोष
मानता है। परंतु बाह्य पदार्थों में सुख की भ्रांति से निवृत्त ज्ञानी (योगी) अपने आत्म स्वरूप में ही आनंद
मानता है ॥१०॥ उसी को कहते हैं।९६४। पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवतामव्ययं पदं नूनम् । यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेते समीहन्ते ॥११॥ अर्थ :- यदि वे आत्मा में सिर्फ आत्मज्ञान की ही चेष्टा करते हैं और किसी अन्य पदार्थों का विचार भी नहीं
करते हैं तो मैं निश्चयपूर्वक कहता हूं कि उन ज्ञानी पुरुषों को अनायास ही निर्वाणपद प्राप्त हो सकता |
है।।११।। इसी बात को स्पष्ट रूप से कहते हैं।९६५। श्रूयते सुवर्णभावं, सिद्धरसस्पर्शतो यथा लोहम् । आत्मध्यानादात्मा, परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति ॥१२॥ अर्थ :- सुनते है कि - जैसे सिद्ध रस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है; उसी तरह आत्मा का ध्यान करने |
से आत्मा परमात्मा बन जाता है ॥१२॥ ।९६६। जन्मान्तरसंस्कारात् स्वयमेव किल प्रकाशते तत्त्वम् । सुप्तोत्थितस्य पूर्वप्रत्ययवत् निरुपदेशमपि।।१३।। अर्थ :- जैसे निद्रा से जागत हए मनुष्य को पहले अनभव किया हआ कार्य दसरे के कहे बिना. स्वयमेव याद
आ जाता है। वैसे ही योगी पुरुष को पूर्व जन्म-जन्मांतर के संस्कारों से उपदेश के बिना स्वतः ही तत्त्व
प्रकाशित हो जाता है ॥१३॥ जिस योगी ने पूर्व जन्म में आत्मज्ञान का अभ्यास किया हो, उसे निद्रा से जागे हुए व्यक्ति के समान स्वयमेव | आत्मज्ञान हो जाता है। इसमें परोपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। ।९६७।अथवा गुरुप्रसादाद, इहैव तत्त्वं समुन्मिषति नूनम् । गुरुचरणोपास्तिकृतः, प्रशमजुषः शुद्धचित्तस्य।।१४।। अर्थ :- अथवा पूर्व जन्म के संस्कार के बिना ही गुरु-चरणों के उपासक प्रशम-रस संपन्न निर्मलचित्त साधक
को गुरु-कृपा से अवश्य ही आत्मज्ञान स्फुरित हो जाता है ।।१४।। दोनों जन्मों में गुरुमुखदर्शन की आवश्यकता बताते हैं
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