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| ॐ अर्हते नमः ।।
|१२. द्वाटणम प्रकाश
शास्त्र आरंभ में कहा था कि 'अपने अनुभव से भी कहूँगा' उसे विस्तृत रूप से बताने के लिए प्रस्तावना करते
१९५४।श्रुतिसिन्धोर्गुरु मुखतो, यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक् । अनुभवसिद्धमिदानी, प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम्।।१॥
अर्थ :- श्रुतज्ञान रूपी समुद्र से तथा गुरुमुख से मैंने जो कुछ जाना या सुना है, वह सम्यक् प्रकार से बतला दिया।
- अब मैं अपने निजी अनुभव से सिद्ध योग-विषयक निर्मल तत्त्व को प्रकाशित करूँगा ॥१॥ अब उत्तमपद पर आरूढ़ होने के लिए चार प्रकार के चित्त का निरूपण करते हैं।९५५। इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च। चेतश्चतुःप्रकारं तज्ज्ञ-चमत्कारकारि भवेत् ॥२॥
अर्थ :- योगाभ्यास के अधिकार में चित्त चार प्रकार का है-१. विक्षिस मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन . और ४. सुलीनमन, ये चित्त के चार प्रकार हैं; जो इस विषय के जानकार के लिए चमत्कार जनक होते
इसकी क्रमशः व्याख्या करते हैं।९५६। विक्षिप्तं चलमिष्टं, यातायातं च किमपि सानन्दम् । प्रथमाभ्यासे द्वयमपि, विकल्प विषयग्रहं तत् स्यात् ॥३॥ अर्थ :- विक्षिस चित्त चंचल रहता है, वह इधर-उधर भटकता रहता है। यातायात चित्त कुछ आनंददायक है;
वह कभी बाहर चला जाता है कभी अंदर स्थित रहता है। प्राथमिक अभ्यास करने वालों के चित्त की ये दोनों स्थितियाँ होती हैं। अर्थात् पहले चित्त में चंचलता रहती है, फिर अभ्यास करने से धीरे-धीरे चंचलता के साथ स्थिरता आने लगती है। दोनों प्रकार के ये चित्त विकल्प के साथ बाह्य पदार्थों के
ग्राहक भी होते हैं ॥३॥ ।।९५७। श्लिष्टं स्थिरसानन्दं, सुलीनमतिनिश्चलं परानन्दम् । तन्मात्रकविषयग्रहम् उभयमपि बुधैस्तदाम्नातम्॥४॥ अर्थ :- श्लिष्ट नामक तीसरा मन स्थिरतायुक्त और आनंदमय होता है और जब वही मन अत्यंत स्थिर हो जाता
है, तब परमानंदमय होता है; वही चौथा सुलीन मन कहलाता है। ये दोनों मन अपने-अपने योग्य विषय को ही ग्रहण करते हैं। परंतु ये बाह्य-पदार्थ को ग्रहण नहीं करते। इसलिए पडितों ने नाम के अनुसार
ही उनके गुण माने हैं ॥४॥ ।९५८। एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेत् निरालम्बम् । समरसभावं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत्।।५।। अर्थ :- इस प्रकार क्रमशः अभ्यास करते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का
और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार बार-बार अभ्यास करने से ध्याता निरालम्ब ध्यान तक पहुंच जाता है। इससे समरसभाव की प्राप्ति होती है, उसके बाद योगी परमानंद का|
अनुभव करता है ॥५॥ समरसभाव की प्राप्ति किस तरह होती है? उसे कहते हैं।९५९। बाह्यात्मानमपास्य, प्रसत्तिभाजाऽन्तरात्मना योगी । सततं परमात्मानं विचिन्तयेत् तन्मयत्वाय।।६।। अर्थ :- आत्मसुखाभिलाषी योगी को चाहिए कि अंतरात्मा बाह्यपदार्थ रूप बहिरात्मभाव का त्याग करके
परमात्म स्वरूप में तन्मय होने के लिए निरंतर परमात्मा का ध्यान करे। ' दो श्लोकों से आत्मा के बहिरादि का स्वरूप कहते हैं
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