Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 475
________________ शुक्लध्यान का स्वरूप योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ६१ इसलिए वह सुख सादिक है । इस सिद्ध-सुख का कभी अंत नहीं होने से वह अनंत सुख है। सादि का अनंतत्व कैसे | हो सकता है? क्योंकि घटादि का नाश देखने से घटादि की आदि होती है, घन, हथौड़े आदि के व्यापार से उसका नाश | होता देखा जाता है। इसलिए क्षय होने पर उसमें से घट उत्पन्न होने से वह अनंत नहीं कहलाता है। परंतु आत्मा का कभी क्षय न होने से वह सुख अक्षय अनंत है। अनुपम अर्थात् किसी भी उपमान के अभाव वाला सुख, प्रत्येक जीवों के अतीतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल के सांसारिक सुख एकत्रित करें, तो भी वह सुख एक सिद्ध के सुख का अनंतवाँ भाग है। उनके सुख में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती है, शरीर और मन की पीड़ाओं का अभाव | होने से वह सुख अव्याबाध है। स्वाभाविक रूप उत्पन्न होने वाला सिद्ध का सुख सिर्फ आत्म स्वरूप से ही होने वाला सुख है। इस प्रकार सादि-अनंत, अनुपम, अव्याबाध और स्वाभाविक सुख से युक्त केवलज्ञान - केवलदर्शन| संपन्न मुक्त - आत्मा परमानंद के अधिकारी होते हैं। ऐसा कहकर कितने ही दार्शनिक जो कहते हैं कि 'मुक्तात्मा सुख आदि गुणों से रहित ओर ज्ञान-दर्शन रहित होते हैं; उनके मत का खंडन कर दिया है। वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं कि 'बुद्धि आदि नौ आत्मा के विशेष गुणों का अत्यंत छेदन हो जाना मोक्ष है', अथवा जो प्रदीप का निर्वाण होने (बुझने) के समान मोक्ष को केवल अभाव स्वरूप मानते हैं, उनके मत का भी निराकरण कर दिया है ! बुद्धि आदि गुणों के उच्छेद | रूप या आत्मा के उच्छेद-रूप मोक्ष की इच्छा करना योग्य नहीं है; कौन विवेकी बुद्धिशाली पुरुष अपने गुणों के उच्छेदन से युक्त या आत्मा के उच्छेदन रूप मोक्ष को चाहेगा? इसलिए अनंतज्ञान- दर्शन - सुख - वीर्यमय स्वरूप वाला सर्वप्रमाणों से सिद्ध मोक्ष ही युक्ति युक्त है । ६१ ।। ।। इस प्रकार परमार्हत श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्राचार्यसूरीश्वर रचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशास्त्र का खोपज्ञविवरणसहित एकादशम प्रकाश संपूर्ण हुआ । 454

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