Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 478
________________ अनुभवित योग का वर्णन योगशास्त्र द्वादशम प्रकाश श्लोक १५ से २५ अर्थ : | । ९६८ । तत्र प्रथमे तत्त्वज्ञाने, संवादको गुरुर्भवति । दर्शयिता त्वपरस्मिन्, गुरुमेव सदा भजेत्तस्मात् ॥१५॥ पूर्वजन्म में प्रथम तत्त्वज्ञान का उपदेष्टा गुरु ही होता है और दूसरे जन्म में भी तत्त्वज्ञान बताने वाला भी गुरु ही होता है। इसलिए सदा गुरु महाराज की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए ।। १५ ।। अब गुरु महाराज की स्तुति करते हैं ।। ९६९ । यद्वत् सहस्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य । तद्वद् गुरुरत्र भवेदज्ञान - ध्वान्त - पतितस्य।।१६।। अर्थ :- जैसे अतिगाढ़ अंधकार में स्थित पदार्थ को सूर्य प्रकाशित कर देता है; वैसे ही अज्ञान रूपी अंधकार में भटकते हुए आत्मा को इस संसार में (तत्त्वोपदेश देकर ) गुरु ज्ञान ज्योति प्रकाशित कर देता है ।। १६ ।। इसलिए । ९७० । प्राणायाम- -प्रभृति-क्लेशपरित्यागतस्ततो योगी । उपदेशं प्राप्य गुरोः, आत्माभ्यासे रतिं कुर्यात् ॥१७॥ :- अतः प्राणायाम आदि क्लेश कर उपायों का त्याग करके योगी गुरु का उपदेश प्राप्त कर आत्म स्वरूप के अभ्यास में ही मग्न रहे ||१७|| इसके बाद अर्थ ||९७१ । वचन- मनः कायानां, क्षोभं यत्नेन वर्जयेत् शान्तः । रसभाण्डमिवात्मानं सुनिश्चलं धारयेत् नित्यम्॥ १८॥ मन, वचन और काया की चंचलता का प्रयत्न पूर्वक त्याग करके योगी को रस से भरे बर्तन की तरह आत्मा को स्थिर और शांत बनाकर सदा अतिनिश्चल रखना चाहिए ||१८|| अर्थ : ।९७२ । औदासीन्यपरायण - वृत्तिः किञ्चिदपि चिन्तयेन्नैव । यत् सङ्कल्पाकुलितं चित्तं नासादयेत् स्थैर्यम्।।१९।। अर्थ :- बाह्यपदार्थो के प्रति उदासीनभाव रखने वाले योगी को इस प्रकार का किंचित् भी चिंतन नहीं करना चाहिए, जिससे मन संकल्प-विकल्पों से आकुल-व्याकुल होकर स्थिरता प्राप्त न करे ।।१९।। अब व्यतिरेक भाव को कहते हैं || ९७३ । यावत् प्रयत्नलेशो, यावत् सङ्कल्पकल्पना काऽपि । तावन्न लयस्यापि प्राप्तिस्तत्त्वस्य का तु कथा ? | २०|| अर्थ :- जब तक मन-वचन-काय - योग से संबंधित कुछ भी प्रयत्न विद्यमान है और जब तक संकल्प युक्त कुछ भी कल्पना मौजूद है, तब तक लय (तन्मयता) की प्राप्ति नहीं होगी; तत्त्वप्राप्ति की तो बात ही क्या है ? ।।२०।। अब उदासीनता का फल कहते हैं | । ९७४।यदिदं तदिति न वक्तुं साक्षाद् गुरुणाऽपि हन्त ! शक्येत । औदासीन्यपरस्य, प्रकाशते तत् स्वयं तत्त्वम् ॥२१॥ अर्थ :- 'यह वह परमात्मतत्त्व है' यों तो साक्षात् गुरु भी कहने में समर्थ नहीं है। उदासीनभाव में तल्लीन बने हुए योगी को वह परमात्मतत्त्व स्वयमेव प्रकाशित होता है ।। २१ । । उदासीनता में रहने पर काया परमतत्त्व में तन्मय हो जाती है और उसमें उन्मनीभाव प्रकट हो जाता है; यह बात | चार श्लोकों द्वारा स्पष्ट करते हैं । ९७५ । एकान्तेऽतिपवित्रे रम्ये देशे सदा सुखासीनः । आचरणाग्रशिखाग्रतः शिथिलीभूताखिलावयवः ||२२|| | । ९७६ । रूपं कान्तं पश्यन्नपि शृण्वन्नपि गिरं कलमनोज्ञाम् । जिघ्रन्नपि च सुगन्धीन्यपि, भुञ्जानो रसान् स्वादून् ||२३|| | । ९७७|भावान् स्पृशन्नपि मृदूनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम्। परिकलितौदासीन्यः, प्रणष्टविषयभ्रमो नित्यम् ||२४|| || ९७८ । बहिरन्तश्च समन्तात्, चिन्ता - चेष्टापरिच्युतो योगो । तन्मयभावं प्राप्तः कलयति भृशमुन्मनीभावम्।।२५।। अतिपवित्र, एकांत और रमणीय स्थल में सदा पैर के अंगूठे से लेकर चोटी के अग्रभागपर्यंत समस्त अवयवों को शिथिल करके लम्बे समय तक बैठ सके, ऐसे ध्यान के अनुरूप किसी भी सुखासन से बैठे। ऐसी दशा में मनोहर रूप को देखता हुआ भी, मधुर मनोज्ञ वाणी को सुनता हुआ भी, सुगंधित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, स्वादिष्ट रस का आस्वाद करता हुआ भी, कोमल पदार्थों का स्पर्श करता हुआ अर्थ : 457

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