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शुक्लध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ५२ से ५५
| यह हुआ कि अन्य दर्शनों ने आत्मा को सर्वत्र चक्षुवाला, सर्वत्रमुखवाला, सर्वत्र बाहु वाला व सर्वत्र पैर वाला सारे लोक में व्यापक माना है ।। ५१ ।।
अब पांचवें आदि समय में वे क्या करते हैं? उसे कहते हैं
। ९४४। समयैस्ततश्चतुभिर्निवर्तते लोकपूरणादस्मात् । विहितायुः समकर्मा, ध्यानी प्रतिलोममार्गेण ॥५२॥
अर्थ :- चार समय में समग्र लोक में आत्मप्रदेशों को व्याप्त करके अन्य कर्मों को आयुकर्म के समान करके ध्यानी मुनि प्रतिलोम - क्रम से लोकपूरित कार्य को समेटते हैं ।। ५२॥
व्याख्या : - इस प्रकार चार समय में अन्य कर्मों की स्थिति के समान आयुष्य कर्म को बनाकर पांचवे समय में | लोक में फैले हुए कर्म वाले आत्मप्रदेशों का संहरण कर सिकोड़ते हैं। छठे समय में मंथानी के आकार को समेट लेते। हैं, सातवे समय में कपाट के आकार को सिकोड़ते हैं और आठवे समय में दंडाकार को समेटकर पूर्ववत् अपने मूल शरीर | में ही स्थित हो जाते हैं। समुद्घात के समय मन और वचन के योग का व्यापार नहीं होता। उस समय इन दोनों योगों का कोई प्रयोजन नही होता है, केवल एक काय-योग का ही व्यापार होता है। उसमें पहले और आठवें समय में औदारिक काय की प्रधानता होने से औदारिक काययोग होता है। दूसरे, छठे, और सातवें समय में औदारिक शरीर से | बाहर आत्मा का गमन होने से कार्मण-वीर्य का परिस्पंद - अत्यधिक कंपन होने से औदारिक- कार्मणमिश्र योग होता है, | तीसरे चौथे और पांचवे समय में आत्मप्रदेश औदारिक शरीर के व्यापार-रहित और उस शरीर से बाहर होने से उस शरीर की सहायता के बिना अकेला कार्मण काययोग होता है। वाचकवर्य श्री उमास्वाति ने प्रशमरति के २७५ और २७६ वें श्लोक में कहा है- "समुद्घातकाल में पहले और आठवें में औदारिक शरीर का योग होता है, सातवें, छठे और दूसरे | समय में मिश्र औदारिक योग होता है तथा चौथे, पांचवे और तीसरे समय में कार्मण शरीर-योग होता है, और इन तीनों | समयों में नियम से वे अनाहारक होते हैं।" समुद्घात का त्याग करने के बाद यदि आवश्यकता हो तो वे तीनों योगों का व्यापार करते हैं। जैसे कि कोई अनुत्तरदेव मन से प्रश्न पूछे तो सत्य या असत्यामृषा मनोयोग की प्रवृत्ति करे, इसी | प्रकार किसी को संबोधन आदि करने में, उसी प्रकार वचनयोग के व्यापार करते हैं। अन्य दो प्रकार के योग से व्यापार नहीं करते। दोनों भी औदारिक काययोग-फल वापिस अर्पण करने आदि में व्यापार करते हैं। उसके बाद अंतर्मुहूर्तमात्र | समय में योग-निरोध प्रारंभ करते हैं। इन तीनों योगों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । केवलज्ञान होने के बाद इन दोनों | प्रकार के योगों का उत्तरकाल जघन्य अंतर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि काल तक सयोगीकेवली विचरण कर अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध करते हैं। जब उनका आयुष्य केवल अंतर्मुहूर्त शेष रहता है, तब वे प्रथम बादर | काययोग से बादर वचनयोग और मनोयोग को रोकते हैं, उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादरकाययोग को रोकते हैं। बादर काययोग होता है, तब सूक्ष्मयोग को रोकना अशक्य है, दौड़ता हुआ मनुष्य अकस्मात् अपनी गति को नही रोक सकता, | धीरे-धीरे ही रोक सकता है। उसी तरह सर्व बादर योग का निरोध करने के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्मवचन और | मनोयोग का निरोध करते हैं, उसके बाद सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ति शुक्लध्यान करते हुए अपनी आत्मा से ही सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं ।। ५२ ।। इसी बात को तीन श्लोकों द्वारा कहते हैं।९४५।श्रीमानचिन्त्यवीर्यः शरीरयोगेऽथ बादरे स्थित्वा । अचिरादेव हि निरुणद्धि, बादरो वाङ्मनः - सयोगौ ॥ ५३ ॥ ।९४६ । सूक्ष्मेण काययोगेन, काययोगं स बादरं रून्ध्यात् । तस्मिन् अनिरुद्धे सति शक्यो रोद्धुं न सूक्ष्मतनुयोगः ॥ ५४ ॥ | | ९४७ ॥ वचन - मनोयोग - युगं सूक्ष्मं निरुणद्धि सूक्ष्मात्तनुयोगात् । विदधाति ततो ध्यानं सूक्ष्मक्रियमसूक्ष्मतनुयोगम् ॥५५॥
अर्थ
:
केवलज्ञानादिक लक्ष्मी तथा अचिंतनीय शक्ति से युक्त वह योगी बादर काययोग का अवलम्बन लेकर बादर वचनयोग और मनोयोग को शीघ्र ही रोक लेता है, फिर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकता है; क्योंकि बादर काययोग का निरोध किये बिना सूक्ष्म काययोग का निरोध नहीं हो सकता है। तदनंतर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचन और सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। उसके बाद
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