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शुक्लध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ३० से ४७ ||९३०। अस्य नखा रोमाणि च, वर्धिष्णून्यपि न हि प्रवर्धन्ते । भवशतसञ्चितकर्मच्छेदं दृष्ट्वेव भीतानि ॥३८॥ ||९३१। शमयन्ति तदभ्यर्णे, रजांसि गन्धजलवृष्टिभिर्देवाः । उन्निद्रकुसुमवृष्टिभिरशेषतः सुरभयन्ति भुवम् ॥३९॥ ||९३२॥ छत्रत्रयी पवित्रा विभोरुपरि भक्तितस्त्रिदशराजैः । गङ्गास्रोतस्त्रितयीव, धार्यते मण्डलीकृत्य ॥४०॥ अर्थ :- श्री तीर्थकर भगवान् के शरीर के अनुरूप चारों और सूर्यमंडल की प्रभा को भी मात करने वाला और
सर्वदिशाओं को प्रकाशित करने वाला भामंडल प्रकट होता है। भगवान् जब पृथ्वीतल पर विहार करते हैं, तब कल्याणकारिणी भक्ति वाले देव तत्काल प्रभु के प्रत्येक चरण रखने के स्थान पर स्वर्णमय कमल स्थापित करते हैं। तथा वायु अनुकूल चलता है। पक्षी भगवान् की प्रदक्षिणा दाहिनी ओर से देते हैं, वृक्ष भी झुक जाते हैं, उस समय कांटों के मुख नीचे की ओर हो जाते हैं। लालिमायुक्त पत्ते तथा खिले हुए फूलों की सुगंध से व्यास अशोकवृक्ष, जो भौंरों के गुंजन से मानो स्वाभाविक स्तुति करता है एवं भगवान् पर छाया करता हुआ सुशोभित होता है। कामदेव की सहायता करने के अपने पाप का मानो प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए एक ही साथ छहों ऋतुएँ उस समय प्रभु के समीप उपस्थित होती हैं। उस समय देवदुंदुभि भी उनके सामने आकाश में जोर से घोषणा करती हुई प्रकट होती है, मानो वह भगवान् के शीघ्र निर्वाण के हेतु प्रयाण कल्याणक मना रही हो। भगवान् के पास पांचों इंद्रियों के प्रतिकूल विषय भी क्षणभर में मनोहर बनकर अनुकूल बन जाते हैं, क्योंकि महापुरुषों के संपर्क से किसके गुणों में वृद्धि नहीं होती? सभी की होती है। केश, नख आदि का स्वभाव बढ़ने का है, किन्तु सैकड़ों भवों के संचित कर्मों का छेदन देखकर वे भयभीत होकर बढ़ने का साहस नहीं करते। भगवान् के आसपास सुगंधित जल की वृष्टि करके देव धूल को शांत कर देते हैं और खिले हुए पुष्पों की वर्षा से समग्र भूमि को सुरभित कर देते हैं। इंद्र भक्ति से मंडलाकार करके तीन छत्र भगवान् पर धारण करते हैं; मानो वे
गंगानदी के मंडलाकार तीन स्रोत किये हुए धारण हों ॥३१-४०॥ ।।९३३। अयमेक एव नः प्रभुरित्याख्यातु विडोजसोन्नमितः । अङ्गुलिदण्ड इवोच्चैश्चकास्ति रत्नध्वजस्तस्य।।४१॥ ।९३४। अस्य शरदिन्दुदीधितिचारूणि च चामराणि धूयन्ते । वदनारविन्दसम्पाति-राजहंसभ्रमं दधति ॥४२।। ।९३५। प्राकारास्त्रय उच्चैः, विभान्ति समवसरणस्थितस्यास्य । कृतविग्रहाणि सम्यक्-चारित्रज्ञानदर्शनानीव।।४३।। ||९३६। चतुराशावर्तिजनान्, युगपदिवानुग्रहीतुकामस्य । चत्वारि भवन्ति मुखान्यङ्गानि च धर्ममुपदिशतः ॥४४॥ ।।९३७। अभिवन्धमानपादः सुरासुरनरोरगैस्तदा भगवान् । सिंहासनमधितिष्ठति, भास्वानिव पूर्वगिरिश्रृङ्गम्।।४५।। ||९३८। तेजःपुञ्जप्रसरप्रकाशिताशेषदिक्क्रमस्य तदा । त्रैलोक्यचक्रवर्तित्व-चिह्नमग्रे भवति चक्रम् ॥४६॥ ।९३९। भुवनपति-विमानपति-ज्योतिःपति-वानमन्तराः सविधे । तिष्ठन्ति समवसरणे, जघन्यतः कोटिपरिमाणाः॥४७॥ अर्थ :- यही एकमात्र हमारे स्वामी हैं इसे कहने के लिए मानो इंद्र ने अपनी अंगुली ऊँची कर रखी हो, ऐसा
रत्नजटित इंद्रध्वज भगवान् के आगे सुशोभित होता है। भगवान् पर शरदऋतु की चंद्र-किरणों के समान उज्ज्वल चामर दुलाये जाते हैं, जब वे चामर मुखकमल पर आते हैं तो राजहसों की-सी भ्रांति होती | है। समवसरण में स्थित भगवान् के चारों तरफ स्थित ऊँचे तीन गढ़ (प्राकार) ऐसे मालूम पड़ते हैं; मानों सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ने तीन शरीर धारण किये हैं। जब भगवान् समवसरण में चारों दिशाओं में स्थित लोगों को धर्मोपदेश देने के लिए विराजमान होते हैं, तब भगवान के चार शरीर और चार मुख हो जाते हैं; मानो लोगों पर एक साथ उपकार करने की इच्छा से उन्होंने चारों दिशाओं में| चार शरीर धारण किये हों। उनके चरणों में जिस समय सुर, असुर, मनुष्य और भवनपति देव आदि नमस्कार करते हैं, उस समय सिंहासन पर विराजमान भगवान् ऐसे मालूम होते हैं; मानो उदयाचल के शिखर पर सूर्य सुशोभित हो। उस समय अपने तेजःपुंज से समस्त दिशाओं के प्रकाशक भगवान् के आगे त्रैलोक्य धर्म-चक्रवर्तित्व का चिह्न रूप धर्मचक्र रहता है। भवनपति, वैमानिक, ज्योतिष्क और
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