Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 470
________________ शुक्लध्यान का स्वरूप योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक २२ से ३७ ।९१४। ज्ञानावरणीयं दृष्ट्यावरणीयं च मोहनीयं च । विलयं प्रयान्ति सहसा, सहान्तरायेण कर्माणि ॥२२॥ अर्थ :- शुक्लध्यान के प्रभाव से अंतरायकर्म के सहित ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय यह चारों कर्म एक साथ विनष्ट हो जाते हैं ।।२२।। घातिकर्म के क्षय का फल कहते हैं।।९१५। सम्प्राप्य केवलज्ञान-दर्शने दुर्लभे ततो योगी । जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ।।२३।। अर्थ :- घातिकर्मों का क्षय होने पर ध्यानांतर योगी दुर्लभ केवलज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करके यथावस्थित रूप में समस्त लोक और अलोक को जानने तथा देखने लगता है ॥२३॥ केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद तीर्थंकर परमात्मा के अतिशय चौवीस श्लोकों के द्वारा कहते हैं||९१६। देवस्तदा स भगवान् सर्वज्ञः सर्वदर्श्वनन्तगुणः । विहरत्यवनीवलयं, सुरासुरनरोरगैः प्रणतः ॥२४॥ ।९१७। वाग्ज्योत्स्नयाऽखिलान्यपि, विबोधयति भव्यजन्तुकुमुदानि । उन्मूलयति क्षणतो, मिथ्यात्वं द्रव्य-भावगतम्।।२५।। ।९१८। तन्नामग्रहमात्राद्, अनादि-संसार-सम्भवं दुःखम् । भव्यात्मनामशेष परिक्षयं याति सहसैव ॥२६।। १९१९। अपि कोटीशतसङ्ख्याः समुपासितुमागताः सुरनराद्याः । क्षेत्रे योजनमात्रे, मान्ति तदाऽस्य प्रभावेण ॥२७॥ १९२०। त्रिदिवौकसो मनुष्याः तिर्यञ्चोऽन्येऽप्यमुष्य बुध्यन्ते । निजनिजभाषानुगतं, वचन धर्मावबोधकरम् ॥२८॥ ।९२१। आयोजनशतमुग्राः रोगाः शाम्यन्ति तत्प्रभावेण । उदयिनि शीतमरीचाविव तापरुजः क्षितेः परितः ॥२९॥ ||९२२। मारीति-दुर्भिक्षातिवृष्ट्यनावृष्टि-डमर-वैराणि । न भवन्त्यस्मिन् विहरति, सहस्ररश्मौ तमांसीव॥३०॥ अर्थ :- केवलज्ञान होने के बाद सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंत गुणों के निधान देवाधिदेव अर्हन्त भगवान् अनेक सुर, असुर और नागकुमार आदि से वंदनीय होकर पृथ्वीमंडल पर विचरते हैं। और विचरते हुए भगवान् अपनी वाणी रूपी चंद्रज्योत्स्ना (चांदनी) द्वारा भव्यजीव रूपी चंद्रविकासी कमल (कुमुद) को प्रतिबोधित करते हैं और उनके द्रव्य-मिथ्यात्व और भाव-मिथ्यात्व रूपी अंधकार को क्षणभर में समूलतः नष्ट कर देते हैं। उनका नाम उच्चारण करने मात्र से अनादिकाल से संसार में उत्पन्न होने वाले भव्यजीवों के समग्र दुःख सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। तथा उन भगवान् की उपासना के लिए आये हुए शतकोटि देव, मनुष्य,और तिर्यंच आदि एक योजनमात्र क्षेत्र-स्थान में ही समा जाते हैं। उनके धर्मबोधक वचनों को देव, मनुष्य, पशु तथा अन्य जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। वे ऐसा समझते हैं कि भगवान् हमारी ही भाषा में बोल रहे हैं। भगवान् जिस-जिस क्षेत्र में विचरते हैं, उस-उस स्थल से चारों ओर सौ-सौ योजन-प्रमाण क्षेत्र में उनके प्रभाव से महारोग वैसे ही शांत हो जाते हैं, जैसे चंद्र के उदय से गर्मी शांत हो जाती है। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार नहीं रहता है। वैसे ही भगवान् जहाँ विचरते हैं, वहाँ महामारी, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध, वैर आदि उपद्रव नहीं रहते ।।२४-३०।। तथा।९२३। मार्तण्डमण्डलश्रीविडम्बिभामण्डलं विभोः परितः । आविर्भवत्यनुवपुः प्रकाशयत् सर्वतोऽपि दिशः ॥३१॥ ।९२४। सञ्चारयन्ति विकचान्यनुपादन्यासमाशु कमलानि । भगवति विहरति तस्मिन् कल्याणी-भक्तयो देवाः ॥३२॥ ।९२५। अनुकूलो वाति मरुत्, प्रदक्षिणं यान्त्यमुष्य शकुनाश्च । तरवोऽपि नमन्ति भवन्त्यधोमुखाः कण्टकाश्च तदा।।३३।। ।९२६। आरक्तपल्लवोऽशोकपादपः स्मेरकुसुमगन्धाढ्यः । प्रकृतस्तुतिरिव मधुकरविरुतैर्विलसत्युपरि तस्य ॥३४॥ ।।९२७। षडपि समकालमृतवो, भगवन्तं तं तदोपतिष्ठन्ते । स्मरसाहाय्यककरणे, प्रायश्चित्तं ग्रहीतुमिव ॥३५॥ ।९२८। अस्य पुरस्तात् निनदन्, विजृम्भते दुन्दुभिर्नभसि तारम् । कुर्वाणो निर्वाणप्रयाण-कल्याणमिव सद्यः ॥३६॥ ||९२९। पञ्चापि चेन्द्रियार्थाः, क्षणान्मनोज्ञी भवन्ति तदुपान्ते । को वा न गुणोत्कर्ष, सविधे महतामवाप्नोति? ॥३७॥ | 449

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