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शुक्लध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक १३ से २१ है, वह पुत्र कहलाता है। भव के अंत तक रहने वाले भवोपग्राही कर्मों की निर्जरा इसी ध्यान से होती है। अथवा एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे कि 'हरि' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। हरि शब्द के सूर्य, बंदर, घोड़ा, सिंह, इंद्र, कृष्ण आदि अनेक अर्थ हैं। इसी प्रकार ध्यान शब्द के भी अनेक अर्थ होते हैं। जैसे कि 'ध्यै चिंतायाम्' 'ध्यैकाययोगनिरोधे' 'ध्यै अयोगित्वेऽपि' अर्थात् ध्यै धातु चिंतन में, विचार या ध्यान में, काययोग के निरोध अर्थ में और अयोगित्व अर्थ में भी कहा गया है। व्याकरणकारों और कोषकारों के मतानुसार निपात तथा उपसर्ग के योग से धातु के अनेक अर्थ होते हैं। इसका उदाहरण यही पाठ है। अथवा जिनागम में भी अयोगी-केवली-अवस्था को भी ध्यान कहा है। कहा भी है कि 'आगम-युक्ति संपूर्ण श्रद्धा से अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्ता स्वीकार करने के लिए प्रमाणभूत है ।।१:
इतना कहने के बाद भी शुक्लध्यान के चार भेदों को विशेष रूप से समझाते हैं।९०५। आद्ये श्रुतावलम्बन-पूर्वे पूर्वश्रुतार्थ-सम्बन्धात् । पूर्वधराणां छद्मस्थयोगिनां प्रायशो ध्याने ॥१३॥ अर्थ :- शुक्लध्यान के चार भेदों में से प्रथम के दो ध्यान पूर्वधरों एवं छद्मस्थयोगियों को श्रुतज्ञान के अवलम्बन
से प्रायः पूर्व श्रुत के अर्थ से संबंधित होते हैं। प्रायशः कहने का आशय यह है कि अपूर्वधर माषतुष
मुनि और मरुदेवी भी शुक्लध्यानियों में माने जाते हैं ॥१३।। तथा।९०६। सकलालम्बन-विरह-प्रथिते द्वे त्वन्तिमे समुद्दिष्टे । निर्मल-केवलदृष्टि-ज्ञानानां क्षीणदोषाणाम् ॥१४॥
अर्थ :- शुक्लध्यान के अंतिम दो ध्यान समस्त आलम्बन से रहित होते हैं; वे समस्त दोषों का क्षय करने वाले
. निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन वाले योगियों को होते हैं ॥१४॥ ।९०७। तत्र श्रुताद् गृहीत्वैकम्, अर्थमर्थाद् व्रजेच्छब्दम् । शब्दात् पुनरप्यर्थं योगाद् योगान्तरं च सुधीः ॥१५॥ ।९०८। सङ्क्रामत्यविलम्बितम्, अर्थप्रभृतिषु यथा किल ध्यानी । व्यावर्तते स्वयमसौ, पुनरपि तेन प्रकारेण।।१६।। ।९०९। इति नानात्वे निशिताभ्यासः सञ्जायते यदा योगी । आविर्भूतात्मगुणः, तदैकताया भवेद् योग्यः ॥१७॥ ।९१०। उत्पाद-स्थिति-भङ्गादि-पर्यायाणां यदेकयोगः सन् । ध्यायति पर्यायमेकं, तत् स्यादेकत्वमविचारम्॥१८॥ ।९११। त्रिजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः । विषमिव सर्वाङ्गगतं, मन्त्रबलान्मान्त्रिको दंशे ॥१९॥ ।९१२। अपसारितन्धनभरः शेषः स्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः । तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् ॥२०॥ अर्थ :- उस शुक्लध्यान के प्रथम भेद में श्रुतज्ञान में से किसी एक पदार्थ को ग्रहण करके उसके विचार में से
शब्द का विचार करना, और शब्द से पदार्थ के विचार में आना चाहिए। इसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में आना-जाना होता है। ध्यानी पुरुष जिस शीघ्रता से अर्थ, शब्द और योग में संक्रमण करता है उसी शीघ्रता से उसमें से वापिस लौट आता है। इस प्रकार जब योगी अनेक प्रकार के तीक्ष्ण-(सूक्ष्मविषयक) अभ्यास वाला हो जाता है, तब अपने में आत्मगुण प्रकट करके शुक्लध्यान से एकत्व के योग्य होता है। फिर एक योगवाला बनकर पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और नाश आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय का ध्यान करता है, तब एकत्व, अविचार शुक्ल ध्यान कहलाता है। जैसे मंत्र जानने वाला मंत्र के बल से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त विष को एक स्थान में लाकर केंद्रित कर लेता है, उसी प्रकार योगी ध्यान के बल से त्रिजगतविषयक मन को एक परमाणु पर केंद्रित कर लेता है। जलती हुई अग्नि में से ईंधन को खींच लेने पर या बिलकुल हटा देने पर थोड़े ईंधन वाली अग्नि बुझ जाती है, इसी प्रकार जब
मन को भी विषय-रूपी इंधन नहीं मिलता, तब वह अपने आप ही शांत हो जाता है।।१५-२०॥ अब दूसरे ध्यान का फल कहते हैं।९१३।ज्वलति ततश्च ध्यान-ज्वलने भृशमुज्ज्वले यतीन्द्रस्य । निखिलानि विलीयन्ते क्षणमात्राद् घातिकर्माणि।।२१।। अर्थ :- उसके बाद जब ध्यान रूपी अग्नि अत्यंत प्रचण्ड रूप से जलकर उज्ज्वल हो जाती है, तब उसमें योगीन्द्र
के समग्र घातिकर्म क्षणभर में भस्म हो जाते हैं ।।२१।। घातिकों के नाम कहते हैं
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