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शुक्लध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ५ से ७ शुक्लध्यान के भेद बताते हैं।८९७। ज्ञेयं नानात्त्वश्रुतविचारमैक्यं श्रुताविचारं च । सूक्ष्मक्रियमुत्सन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् ।।५।। अर्थ :- शुक्लध्यान के चार भेद जानने चाहिए-१, पृथक्त्व वितर्कसविचार, २. एकत्व-वितर्क-अविचार, ३.
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रिया निवृत्ति ।।५।। व्याख्या :- यहाँ नानात्व का अर्थ विविध विषयों का विचार करना है। किनका? वितर्क अर्थात् श्रुत-द्वादशांगीचौदह पूर्व का विचार करना। विचार का अर्थ है-विशेष रूप में चार अर्थात् चलना-एक स्थिति में से दूसरी स्थिति में गति करना। तात्पर्य यह है कि परमाणु, यणुक आदि पदार्थ, व्यजन-शब्द, योग=मन वचन काया की प्रवृत्ति में, |संक्रांति करना विचार है। एक से यानि एक विचार से दूसरे में जाना और निकलना ।।५।।
अब प्रथम भेद की विशेष व्याख्या करते है८९८।एकत्र पर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद् द्रव्ये। अर्थ-व्यञ्जन-योगान्तरेषु सङ्क्रमणयुक्तमाद्यं तत् ॥६॥ अर्थ :- एक परमाणु आदि किसी द्रव्य के उत्पाद, विलय, स्थिति, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि पर्यायों का, द्रव्यार्थिक
पर्यायार्थिक आदि विविध नयों के अनुसार पूर्वगत-श्रुतानुसार चिंतन करना। तथा वह चिंतन अर्थ,
व्यंजन (शब्द) एवं मन-वचन-काया के योग में से किसी एक योग में संक्रमण से युक्त होता है ।।६।। व्याख्या :- यही शुक्लध्यान का प्रथम भेद है। जैसे कि - एक पदार्थ का चिंतन करते हुए उसके शब्द का चिंतन करना, शब्द-चिंतन से द्रव्य पर आना, मनोयोग से काययोग में या वचनयोग में आना, इसी तरह काया के योग से मनोयोग या वचनयोग में संक्रमण करना, इस प्रकार का चिंतन शुक्लध्यान के प्रथम भेद में होता है। कहा है-'पूर्वगतश्रुतानुसार एक द्रव्य में उत्पाद-स्थिति-विलय आदि पर्यायों का विविध नयानुसार चिंतन करना वितर्क है और विचार का अर्थ है-पदार्थ, शब्द या तीन योगों में से किसी एक योग से किसी दूसरे योग में प्रवेश करना और निकलना; इस तरीके से उसका विचार करना। इस प्रकार वीतराग मुनि को पृथक्त्व-वितर्क-सविचार शुक्लध्यान होता है। यहाँ प्रश्न होता है कि पदार्थ, शब्द या तीनों योगों में संक्रमण होने पर मन की स्थिरता कैसे रह सकती है? और मन की स्थिरता के बिना इसे ध्यान कैसे कह सकते हैं? इसका उत्तर देते हैं कि 'एक द्रव्य-विषयक मन की स्थिरता होने से ध्यानत्व का स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है ।।६।। ___ अब शुक्लध्यान का दूसरे भेद का स्वरूप बताते हैं।८९९। एवं श्रुतानुसाराद् एकत्ववितर्कमेकपर्याये । अर्थ-व्यञ्जन-योगान्तरेष्वसङ्क्रमणमन्यत्तु ॥७॥ अर्थ :- शुक्लध्यान के द्वितीय भेद में पूर्वश्रुतानुसार कोई भी एक ही पर्याय ध्येय होता है। अर्थात् परमाणु, जीव,
ज्ञानादि गुण, उत्पाद आदि कोई एक पर्याय, शब्द या अर्थ, तीन योगों में से कोई एक योग ध्येय रूप में होता है; किन्तु अलग-अलग नहीं होता। एक ही ध्येय होने से इसमें संक्रमण नहीं होता है; इसलिए
यह 'एकत्व-वितर्क-अविचार' नामक दूसरा शुक्लध्यान है ॥७॥ व्याख्या :- कहा है-यह ध्यान निर्वातस्थान में भलीभांति रखे हुए दीपक के समान निष्कंप होता है। इस ध्यान | में एक ही ध्येय होने से अपनी ही जाति के दूसरे शब्द, अर्थ, पर्याय या अन्य योग का ध्येय में संक्रमण नहीं होता है। परंतु उत्पाद, स्थिति, विनाश आदि में से किसी एक ही पर्याय में ध्यान होता है। ध्येयांतर में संक्रमण नहीं होता है। पूर्वगतश्रुत का आलंबन लेकर किसी एक ही शब्द, अर्थ, पर्याय या योग का ध्यान होता है। परंतु यह ध्यान | निर्विकल्पक-निश्चल होता है। यह ध्यान बारहवें गुणस्थानक के अंत तक रहता है। इसमें यथाख्यातचारित्र होता है।।७।। _अब शुक्लध्यान के तीसरे भेद का स्वरूप बताते हैं
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