Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 465
________________ धर्मध्यान का स्वरूप योगशास्त्र दशम प्रकाश श्लोक २० से २४ 1८८८। विशिष्ट-वीर्य-बोधाढ्यं, कामार्तिज्वरवर्जितम् । निरन्तरायं सेवन्ते, सुखं चानुपमं चिरम् ।।२०।। ।८८९। इच्छा-सम्पन्न-सर्वार्थ-मनोहारि-सुखामृतम् । निर्विघ्नमुपभुञ्जानाः गतं जन्मं न जानते ॥२१॥ अर्थ :- समस्त-पर-पदार्थो की आसक्ति का त्याग करने वाले योगी पुरुष धर्मध्यान के प्रभाव से शरीर को छोड़कर ग्रैवेयक आदि वैमानिक देवलोक में उत्तम देव रूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ महामहिमा (प्रभाव), महान् सौभाग्य, शरद्ऋतु के निर्मल चंद्रमा के समान कांति से युक्त, दिव्य पुष्पमालाओं, आभूषणों और वस्त्रों से विभूषित शरीर प्राप्त होता है। वे विशिष्ट प्रकार के वीर्य (शरीरबल, निर्मल बोध व तीन ज्ञान) से संपन्न कामपीड़ा रूपी ज्वर से रहित, विघ्न-बाधा-रहित अनुपम सुख का चिरकाल तक सेवन करते हैं। इच्छा करते ही उन्हें सब प्रकार के मनोहर पदार्थ प्राप्त होते हैं और निर्विघ्न सुखामृत के उपभोग में वे इतने तन्मय रहते हैं कि उन्हें इस बात का पता नहीं लगता कि कितने जन्म बीते या कितनी आयु व्यतीत हुई? ।।१८-२१।। उसके बाद।८९०। दिव्या भोगावसाने च, च्युत्वा त्रिदिवतस्ततः । उत्तमेन शरीरेणावतरन्ति महीतले ॥२२।। ।८९१। दिव्यवंशे समुत्पन्नाः, नित्योत्सवमनोरमात् । भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डित मनोरथाः ॥२३॥ ।८९२। ततो. विवेकमाश्रित्य, विरज्या शेष भोगतः । ध्यानेन ध्वस्त कर्माणः, प्रयान्ति पदमव्यथम् ॥२४॥ अर्थ :- देव-संबंधी दिव्यभोग पूर्ण होने पर देवलोक से च्युत होकर वे भूतल पर अवतरित होते है, और यहाँ पर भी उन्हें सौभाग्य युक्त उत्तम शरीर प्राप्त होता है। जहाँ निरंतर मनोहर उत्सव होते हों, ऐसे दिव्यवंश में वे जन्म लेते हैं, और अखंडित-मनोरथ वाले व्यक्ति विविध प्रकार के भोगों को अनासक्ति पूर्वक भोगते हैं। उसके बाद विवेक का आश्रय लेकर वे संसार के समस्त भोगों से विरक्त होकर उत्तम ध्यान द्वारा समस्त कर्मों का विनाश करके शाश्वतपद अर्थात् निर्वाणपद को प्राप्त करते हैं ।।२२-२४।। ॥ इस प्रकार परमाईत श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्राचार्यसूरीश्वर रचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशाल का खोपज्ञविवरणसहित दशम प्रकाश पूर्ण हुआ। 444

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